फिल्म समीक्षा
टाइटल – शेरनी
डायरेक्टर-अमित वी. मासूरकर
सितारे-विद्या बालन, बृजेंद्र काला, शरद सक्सेना, नीरज काबी, विजय राज आदि।
ओटीटी-एमेजॉन प्राइम वीडियो।
विद्या बालन की शेरनी फिल्म केवल जंगल और जंगली जानवर की कहानी नहीं है। यह कहानी है अमीरों की और गरीबों की। मालिकों की, मजदूरों की। अफसरों की, कर्मचारियों की। नेताओं की, जनता की। शेरनी की पृष्ठभूमि मध्यप्रदेश के घने वनों की है। एक ऐसा गांव, जिसके चारों तरफ जंगल ही जंगल है। यहीं एक शेरनी जंगल से निकल कर खेतों की ओर आ गई है और गांव में दहशत का पर्याय बन गई है। जंगल से अलग होने के चलते शेरनी के सामने भूख एक बड़ी समस्या है और अपनी इसी भूख को मिटाने के लिए वह आदमखोर हो चुकी है। कभी भैंस तो कभी इंसान को मार कर खा जाती है।
राजनीतिक कटाक्ष
फिल्म में असली कहानी इसके बाद शुरू होती है। गांव में कुछ लोग उस शेरनी को मार डालना चाहते हैं लेकिन वन विभाग की अधिकारी विद्या विंसेंट यानी विद्या बालन शेरनी को मारने के पक्ष में नहीं है बल्कि उसे सुरक्षित जंगल में भेजने के पक्ष में है। वह उसकी जिंदगी बचाना चाहती है। जैसे कि इस फिल्म में गांव का एक युवक डायलॉग बोलता है-अगर टाइगर है तो जंगल है, जंगल है तभी बारिश है, अगर बारिश है तो पानी है और पानी है तभी तो इंसान है। यानी यहां भी लड़ाई जन, जंगल और जिंदगी की है। और यही द्वंद्व इस फिल्म का पूरा आधार है।
राइटर-डायरेक्टर का दिखा कमाल
इसी के बहाने पूरी फिल्म में राइटर-डायरेक्टर ने बड़ी ही कुशलता से स्थानीय स्तर की घटिया राजनीति, वन विभाग की गैरजिम्मेदार अफ़सरशाही, निकम्मे, नकारा अफ़सरों की कलई खोलने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। फिल्म में वन्य जीव संरक्षण के नाम पर जंगली जानवरों के शिकारियों के किरदार के माध्यम से एक भ्रष्ट सिस्टम के लालची चेहरे भी उजागर किये गये हैं। वास्तव में जंगली जानवर का शिकारी केवल वो नहीं जिसने बंदूक चलाई, शिकारी वह भी है जिसने बंदूक चलवाई। क्योंकि जिस गांव की यहां कहानी कही गई है, वहां के गरीब आदिवासी किसान, मजदूर इन्हीं जंगलों पर आश्रित हैं। उनके जानवरों को चारा यहीं से मिलता है। और उनके जीवन का गुजर बसर यहीं से होता है लेकिन लापरवाह अफसरशाही, राजनीतिक लड़ाई लड़ने वालों को आम लोगों की जिंदगी के भविष्य से कोई सरोकार नहीं। बस किसी को विधायक बनना है और तो किसी को प्रमोशन पाना है।
अवैध शिकार पर चुप क्यों रहे सब?
मुझे हाथी मेरे साथी फिल्म का वह गीत याद है न-जब जानवर कोई इंसान का मारे, कहते हैं दुनिया में वहशी उसे सारे-इक जानवर की जान आज इंसानों ने ली है, चुप क्यों है संसार? वास्तव में यह चुप्पी नहीं-एक चीख है। फिल्म के अंतिम सीन में दिखाया गया वह सन्नाटा वास्तव में सवालों का शोर है। सवाल है कि विकास और पर्यावरण का संतुलन संभव है या नहीं? विकास को देखें तो पर्यावरण को भूलना पड़ता है और जब हम पर्यावरण की चिंता करते हैं तो विकास उदास हो जाता है। फिल्म में अफसरशाही पर इस बाबत एक बहुत ही उम्दा डायलॉग यह भी है कि-ये वन विभाग अंग्रेजों की देन है, रेवेन्यू लाओ और प्रमोशन पाओ।
विद्या बालन की दमदार एक्टिंग
फिल्म में विद्या विंसेंट-एक ऐसी किरदार है जिसका प्रमोशन पिछले नौ-दस सालों से नहीं हुआ, वह एक तरह से अपनी नौकरी से ऊब चूकी है इसके बावजूद अपने कर्तव्य से नहीं ऊबना चाहती है और यही वजह है कि वह तमाम गुस्सा और राजनीति को देखते हुये भी आदमखोर शेरनी को बचाने की जद्दोजहद में लगी रहती है।
इसके आगे की कहानी बहुत ही दर्दनाक है। वन विभाग में बंसल हो या नांगिया सबके सब कामचोर हैं, अपनी जिम्मेदारियों से भागने वाले और स्थानीय स्तर पर घटिया राजनीति को पनपने का अवसर देने वाले। इस बीच पिंटू भइया जोकि इलाके के नामी शिकारी हैं, वह अंग्रेजों के जमाने से खानदानी शिकारी हैं, वह मंत्री जी का बहुत करीबी भी है और इसी वजह से विद्या विंसेंट के मिशन के उलट उसे शेरनी को खत्म करने का ठेका दे दिया जाता है।
फिल्म का मूल भाव समझें
इसके आगे की कहानी मैं नहीं लिख सकता। पूरी फिल्म देखने के लिए एमेजॉन प्राइम वीडियो पर जाएं। लेकिन इतना जरूर कहना चाहूंगा कि न्यूटॉन फेम डायरेक्टर अमित वी. मासूरकर ने अपनी तबीयत के मुताबिक एक अच्छी विचारणीय फिल्म बनाई है। फिल्म में वह सबकुछ है जो आज की निन्यानवे फीसदी फिल्मों से नदारद रहती है। यहां एक्शन, फैंटेसी, रोमांस, ड्रामा, आइटम सांग को बिल्कुल न खोजें-यहां अपने जीवन की बुनियादी जरूरतों के लिए संघर्ष करने वाले आदिवासी और मजदूर मिल जायेंगे, खेतों की फसलों को ओसाते किसान दिख जाएंगे, जंगलों में सूखी लकड़ी बीनते गरीब लाचार दिख जायेंगे। साथ में सिल्वर स्क्रीन पर एंटरटेंमेंट, एंटरटेंमेंट और एंटरटेंमेंट के जलवे बिखेरने वाली विद्या बालन की वह सादगी और साहसिकता दिखेगी जो आमतौर पर पर्दे से गायब रहती है। विद्या बालन वाकई हर प्रकार के रोल कर सकती हैं। विद्या के अलावा बृजेंद्र काला, नीरज काबी, शरद सक्सेना और विजय राज ने भी ठीक ठाक रोल निभाया है। जानवरों को दिखाने के लिए कंप्यूटर ग्राफिक्स का अच्छा इस्तेमाल किया गया है। मेकअप और सिनेमैटोग्राफी में गांव, जंगल, आदिवासी और वन विभाग का परिवेश नेचुरल लगता है।
क्या-क्या कमियां हैं?
सालों बाद इतनी नेचुरल और यथार्थवादी फिल्म देखने को मिली है। इसके बावजूद फिल्म में कुछ खामियां भी हैं। फिल्म में कुछ सीन अनावश्यक विस्तार पा गये हैं तो कुछ सीक्वेंसेस को और खोलने की जरूरत थी। मसलन जीके और पीके-इन किरदारों को थोड़ा और खोलना चाहिये था। इसके जरिये तंज का और तीखा बनाया जा सकता था। विद्या विंसेंट के पति और उसके घरेलू रिश्तों के द्वंद्व को दो-एक सीन और दिया जा सकता था।
इसके अलावा फिल्म में एक तकनीकी खामी बाघ और शेर की प्रजाति में भेद न करना भी माना जा रहा है। सोशल मीडिया पर इस पर खूब तंज भी कसे जा रहे हैं। फिल्म का टाइटल शेरनी है-लेकिन पूरी फिल्म के संवादों में लोग उसे कभी शेरनी तो कभी टाइगर बोलते रहते हैं। जबकि वन्य जीव विज्ञान के मुताबिक दोनों प्रजाति अलग-अलग हैं। मुझे इस संदर्भ में मिस्टर नटवरलाल फिल्म याद आती है। फिल्म की कहानी में आदमखोर शेर की दहशत है, लेकिन सीन दर सीन में शेर नहीं बल्कि बाघ को दिखाया जाता है। इस फिल्म का स्क्रीनप्ले कमलेश्वर जी ने लिखा था। इस बारे में मैंने उनसे पूछा था कि ऐसा कैसे हो गया? तो उन्होंने कहा-दरअसल कहानी, पटकथा और संवाद पहले ही लिख लिये गये थे। लेकिन फिल्म की शूटिंग में शेर के बदले बाघ को दिखा दिया गया तो मैं क्या करुं? संभव है ऐसी भूल यहां भी हुई हो! लेकिन इसके बावजूद मेरी नजर में यह खामी बहुत मायने नहीं रखती। क्योंकि एक तो आमतौर बाघिन लोग नहीं बोलते उसे आम बोलचाल में शेरनी ही कह दिया जाता है दूसरे कि शेरनी हो या बाघिन-दोनों ही वन्य जीव हैं और इस फिल्म में वैसे तमाम वन्य जीवों और उसके आशियाने यानी जंगल के संरक्षण की बात कही गई है। इसलिए शेरनी हो या बाघिन-इससे क्या फर्क पड़ता है?
हां, आज के मसाला मनोरंजन के दौर में अमित वी. मासूरकर, विद्या बालन और उनके सारे सहयोगी कलाकारों ने जो काम कर दिखाया है, वह शेर दिल से कम नहीं और इसके लिए उन्हें हार्दिक बधाई।
रेटिंग-4 स्टार।
-संजीव श्रीवास्तव
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