- फईम और अरशी की यह खुशी कब तक रहेगी कायम?
- काश ! आजादी के अमृत महोत्सव पर एक बूंद अमृत इन्हें भी मिल जाता
पिथौरागढ़ जाते समय यूपी के नगीना के तुलाराम होटल पर नाश्ते के लिए रुके। तुलाराम के रसगुल्ले बड़े प्रसिद्ध हैं। दुकान के बाहर गाड़ी पार्क की थी। इस दौरान पांच-छह साल के दो भाई-बहन वहां आ पहुंचे। एक मासूम हथेली मेरे सामने पसर गयी। नगरों-महानगरों में यह आम बात है। चौक-चौराहों पर अक्सर ऐसी हथेलियां पसरी नजर आती हैं। मैंने उसे गौर से देखा, बाल लड़कों के जैसे, कपड़े बेहद गंदे और मुड़े-तुड़े। नंगे पैर। एक हाथ निक्कर की जेब में और दूसरा मेरी ओर पसरा हुआ। मैंने उससे पूछा, नाम क्या है? वो सकपका गयी। इस तरह के सवाल की आदत नहीं होगी शायद। उसने अपने शरीर को अर्द्धाकार मोड़ा और मुस्करा दी। अमूमन सभी बच्चे ऐसे ही मुस्कराते हैं। मैंने सवाल दोहराया तो गर्दन मोड़ते हुए बोली, ‘अरशी‘। भाई उससे कुछ बड़ा था, और नाम फईम।
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जब मैं बात कर रहा था तो फईम और अरशी आपस में लड़-झगड़ रहे थे। यह शरारत भरी लड़ाई थी। दोनों ही एक-दूसरे का हाथ मोड़ते और फिर जोर-जोर से हंसते। मैंने पूछा, समोसा खाओगी? उसने मना कर दिया। कहा, खा लिया। उसने मुस्कराते हुए कहा, पैसे? मैंने पूछा क्या करती हो पैसे का? सवाल दोहराने पर बताती है गुल्लक। उसके माता-पिता भी भीख मांगते हैं और रेलवे स्टेशन परिसर में रहते हैं। मैंने पूछा कि स्कूल क्यों नहीं जाती? बालसुलभ स्थिति, सवाल का जवाब नहीं दिया। दोबारा पूछा तो बताया कि पापा मना करते हैं। फईम फिर आया और कैमरा देख भागने लगा। संभवतः शरमा रहा था। वह अरशी को साथ लेकर दूर भाग गया।
मुझे उसकी बातें समझने में परेशानी हो रही थी लेकिन भाव समझ में आ रहा था। दिन भर दुत्कारे और ठुकराने जाने के बावजूद इनकी हथेलियां हर व्यक्ति के आगे पसर जाती हैं, एक उम्मीद में कोई कुछ दे दें। भीख मांगना उनकी नीयति है और यह हमारे समाज का नकारापन, जो आजादी के 75 साल बाद भी बच्चों को शिक्षा और स्वास्थ्य का बुनियादी अधिकार भी नहीं दे सके। अरशी की वह मासूम सी हंसी आज तक जेहन में बनी हुई है, क्या पता अरशी की यह मासूमियत और हंसी कब तक बरकरार रहेगी?
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]