कैसे – “स्त्री और पुरुष सोना और लोहा है”?
लोहा और सोना दोनों ही आग में तप कर औजार की चोट सहकर, लोहार और सुनार द्वारा ढाले गये आकार में व्यक्ति और समाज के लिए समर्पित होते हैं।
लेकिन
-मनुष्य, समाज और प्रकृति प्रदत्त आपदाओं एवं विपरीत परिस्थितियों में जलने की क्षमता तथा सहने की शक्ति निःसंदेह तुलनात्मक दृष्टि से लोहे (पुरुष) में अधिक होती है।
-चोट सहने और चोट देने में भी लोहे (पुरुष) का कोई मुकाबला नहीं है।
-रुप, सौंदर्य, गुण एवं मूल्य में लोहे (पुरुष) की हैसियत सोने (स्त्री) के समक्ष कुछ भी नहीं है।
-आर्थिक संकट में सुरक्षा और उबारने की गारंटी सोने (स्त्री) की अपेक्षा लोहे (पुरुष) के पास नगण्य होती है।
-अपनी प्रकृति के कारण लोहा (पुरुष) भयमुक्त आचरण, स्वतंत्र स्वैच्छिक विचरण तथा व्यवहार कर सकता है ।
क्योंकि उसमें संवेदनशीलता की कमी है, लेकिन वह कठोर एवं अधिक शक्तिशाली है। इसलिए जितनी शिद्दत से रक्षा करता है, उतनी ही निर्दयता से प्रहार भी करता है। फिर भी गुण एवं मूल्य की दृष्टि से सोने (स्त्री) की तुलना में वह हीन है।
-कीमती होने के कारण ही सोने (स्त्री) की रक्षा, सुरक्षा और देखभाल अधिक की जाती है, परिजनों के साथ एवं घर-परिवार में सदैव सुरक्षित रहता है।
-अब इसे बंधन कहें अथवा प्रतिष्ठा?
प्रो. (डॉ) सरोज व्यास
(लेखिका-शिक्षाविद्)
निदेशक, फेयरफील्ड प्रबंधन एवं तकनीकी संस्थान,
(गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय), नई दिल्ली