शाम गहराती जा रही थी। जंगल में चरने के लिए गयी गाय समय पर घर लौट आई, लेकिन बड़ा बोड (नर बछड़ा) घर नहीं लौटा। बोड़ की तलाश में कुछ देर इधर-उधर घूमे, ग्रामीणों से पता किया। नहीं पता चला। चाची को चिन्ता हुई कि कहीं बाघ यानी गुलदार ने तो नहीं मार डाला। पहाड़ में अब गुलदार, सूअरों और बंदरों का ही डेरा है।
रात होने लगी। बोड़ नहीं लौटा। विश्वास गहरा रहा था कि बोड़ को गुलदार खा गया। चाची ने आह भरी और बोली, चलो अच्छा है, बाद में भी तो जंगल में ही हकाना यानी छोड़ना था। पूर्व फौजी चाचा ढाढ़स बंधा रहे थे, लौट आएगा।
दरअसल अब पहाड़ में गांव-गांव तक सड़क पहुंच गयी हैं। सड़कों से विकास तो नहीं आया लेकिन लगभग नि:शुल्क राशन, शराब और पालीथीन का दूध पहुंचने लगा है। ऐसे में गांव में अब गाय-बछड़े पालने की जेहमत कौन उठा रहा है?
चाचाजी की भरपूर पेंशन और घुटनों के दर्द के बावजूद चाची ने गाय पाली है।
बोड़ का पहाड़ में काम अब लगभग खत्म हो गया है। पूरे गांव में एक जोड़ी बैल देखने का आंखें तरस जाती हैं। ग्रामीण अब खेती नहीं, किचन गार्डनिंग कर रहे हैं। खैर, रात का खाना हुआ और रात नौ बजे ही गांव में सन्नाटा पसर गया। बोड़ नहीं लौटा। हम सो गये।
सुबह जब उठा तो देखा, बोड़ अपने कीले पर बंधा हुआ था। चाची से पूछा तो बता रही थी कि आधी रात को लौटा। साथ में तीन-चार आवारा पशु थे। हमारा घर रास्ते का है। इसलिए ये आवारा पशु भी उसके साथ आकर आंगन में लेट गये। अब पिछले तीन-चार दिनों से ऐसे ही हो रहा है। बोड़ आधी रात लौटता है और उसके साथ उसके आवारा दोस्त भी होते हैं। डेरा होता है हमारा आंगन।
सुबह देखा तो बोड़ महाशय, चारों पैरों से अंगड़ाई ले रहे थे। यह देखकर मेरी बेटी बोली, पापा, बोड़ बिगड गया। हैंगओवर उतार रहा है। हम सब खिलखिला उठे।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]