- किराये का घर छोड़ा, उजड़ रहे घर में की वापसी
- गलतियों पर गलतियां, बेहतर होता अलग पहचान बनाते
रवींद्र जुगरान वापस भाजपा में चले गये। यह दुखद है कि एक अच्छे और कर्मठ लीडर का यूं हश्र देखकर। रवींद्र एक अच्छे सामाजिक कार्यकर्ता, एक आरटीआई एक्टिविस्ट और एक आंदोलनकारी हैं, इसके बावजूद उन्हें राजनीति में वह मुकाम नहीं मिल सका, जिसके वह हकदार थे। छात्र राजनीति से सक्रिय राजनीति में 25 साल से अधिक समय गंवाया लेकिन हासिल पाया जीरो। जब भाजपा सत्ता में थी तो वह आम आदमी पार्टी में शामिल हो गये। आप में एक बड़े टारगेट को लेकर गये थे, लेकिन आप में अंदरूनी कलह बहुत अधिक है। नेतृत्व कैसे करते? इस बीच कर्नल अजय कोठियाल का आप में पदार्पण हुआ तो रब्बू भाई आइसोलेट हो गये। न कर्नल ने पूछा न रब्बू साथ गये। धीरे-धीरे खाई बढ़ गयी और पिछले पांच-छह महीने से रवींद्र अलग-थलग पड़ गये।
राजनीति में रवींद्र कुछ अनफिट से हो गये। उन्हें मास लीडर नहीं माना जाता। तिकड़मबाज नहीं थे तो पिछलग्गू भी नहीं बने। खंडूड़ी के टाइम थोड़ा बहुत सम्मान मिला पर दुश्मन वह भी नहीं पचा पाये। अब विधानसभा चुनाव से ठीक पूर्व रवींद्र राजनीतिक चौराहे पर खड़े थे, उनको तय करना था कि किस ओर जाएं। फिर राजनीतिक गलती की और डूब रही भाजपा की नाव में सवार हो गये। जबकि उनको चाहिए था कि कुछ नया करते। यदि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में युवाओं की लड़ाई लड़ सकते हैं तो जनता के बीच अपनी लड़ाई भी तो लड़ते। सत्ता किसी की भी रहे, जब रहना पालीटिकल आइसोलेशन में है तो फिर अपनी पहचान क्यों खोएं? रवींद्र के इस फैसले से निजी तौर पर मैं आहत हूं। कुछ नया करते रब्बू भाई। मुश्किलें थीं, लेकिन योद्धा रहे तो एक लड़ाई और सही। हर कोई विजेता नहीं होता, लेकिन योद्धा भी हर कोई नहीं होता।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]