मतदान केंद्रों तक डोली में लाए जाएंगे गर्भवती महिलाएं और बुजुर्ग
मुख्य निर्वाचन अधिकारी सौजन्या के दिमाग को सलाम
राज्य निर्वाचन आयोग ने तय किया है कि 2022 में मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए पर्वतीय जिलों में गर्भवती महिलाओं और बुजुर्गों को डोली से मतदान केंद्र तक लाया जाएगा। मैंने इस व्यवस्था को वोट डिलिवरी डोली सिस्टम नाम दिया है। यह एक सराहनीय पहल है। इस सोच के लिए मुख्य निर्वाचन अधिकारी सौजन्या के दिमाग को सलाम है। हो सकता है कि यह दिमाग नेताओं ने भी खर्च किया हो। इसके बावजूद डोली सिस्टम की सराहना की जानी चाहिए। यदि यह सौजन्या के दिमाग की उपज है तो मेरा सवाल यह है कि यह दिमाग पहले क्यों नहीं चलता? एक महिला ही महिला का दर्द समझ सकती है। सौजन्या ने जो दिमाग मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए चलाया, यदि पहले चलाया होता तो कई गर्भवती महिलाओं और बुजुर्गों की जान बच जाती।
उत्तरकाशी के मोरी ब्लाक की 21 साल की गर्भवती महिला किरन कितनों को याद है? जिस पर बीतती हे वही जानता होगा। प्रसव पीड़ा से ग्रसित किरन को ग्रामीण चारपाई पर लिटा कर पांच किलोमीटर पैदल ले गये। एएनएम सेंटर बंद मिला तो त्यूणी ले गये वहां भी इलाज नहीं मिला तो हिमाचल ले गये लेकिन किरन ने दम तोड़ दिया। पहाड़ में आए दिन इस तरह की घटनाएं होती हैं। डोली न मिलने से कई बुजुर्गों को अस्पताल ले जाना एक चुनौती होती है। यदि डोली मिल भी जाती है तो सैकड़ों गांव ऐसे हैं जहां डोली उठाने के लिए न युवा हैं और न पुरुष।
मेरा कहना है कि चुनाव के समय ही नेताओं और अफसरों का दिमाग चलता है। बाकी साढ़े चार साल दिमाग को स्टोर में क्यों रख दिया जाता है। यदि ये डोली सिस्टम वोट के लिए किया जा सकता है तो मरीजों के लिए क्यों नहीं? दरअसल, हमारे नेताओं और नौकरशाहों के लिए पहाड़ और पहाड़ के लोग प्राथमिकता में हैं ही नहीं। उनकी नजर में पर्वतीय लोग दोयम दर्जे के हैं और जब चुनाव के समय उनको हलाल करना होता है तो उससे पहले ही खूब खिलाया-पिलाया जाता है।
वोट के लिए डोली सिस्टम का विरोध नहीं है। लेकिन नौकरशाहों और नेताओं की मानसिकता को लेकर सवाल है कि वो पहाड़ के जनमानस को लेकर इसी तरह की अच्छी योजनाएं बनाएं तो पलायन भी रुकेगा और शहरों पर जनसंख्या को बोझ भी नहीं बढ़ेगा।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]