- क्षेत्रीय दल ही कर सकते हैं पहाड़ों को आबाद
- 6 प्रतिशत वोट से भी मिल सकती हैं 4 सीटें
राज्य आंदोलनकारी किशोर उपाध्याय इन दिनों पूर्व सीएम हरीश रावत के साथ झिक-झिक कर रहे हैं। बेकार में टाइम खराब कर रहे हैं। हरदा बहुत ही मंजे हुए खिलाड़ी हैं। वो अपने परिवार में भी नाप-तोल कर सदस्यों को तवज्जो देते हैं। हमने 1994 में दिल्ली के जंतर-मंतर में सब तमाशा देखा है। बात पहाड़ के हित की है। धामी हो या हरदा। दोनों ही डुगडुगी बजाकर हम पहाड़ियों को बंदरों की तर्ज पर नचाना चाहते हैं। और हम नाच रहे हैं। पहाड़ बर्बाद हो रहे हैं, प्रदेश भी। प्रदेश में विकास तीन मैदानी जिलों तक सिमटा है और हम लाचार देख रहे हैं। गैरसैंण राजधानी इसलिए नहीं बन रही कि साउथ इंडिया और बिहार के नौकरशाह हावी हैं यदि वो गैरसैंण में एक हफ्ते भी रह गये तो निमोनिया से मर जाएंगे। पहाड़ के अधिकांश नेता बूढ़े हो चुके हैं और उनको झूठ बोल-बोल कर दमा और श्वास रोग हो चुका हैं। उनके पैरों में खुर रोग है तो पहाड़ से बचकर मैदानों में आ गये। इसलिए पूरी बोतल दारू पीने के बावजूद गैरसेंण में दो दिन की सर्दी बर्दाश्त नहीं कर पाते। यह मान लो कि पहाड़ तब तक नहीं बचेगा जब तक राजधानी गैरसैंण नहीं होगी।
अब बात घूम फिर कर मत प्रतिशत की। जो राजनीतिक सच्चाई है। 2002 में यूकेडी ने 62 सीटों पर चुनाव लड़ा और उसे 5.49 प्रतिशत वोट मिले। इसके बावजूद यूकेडी को चार सीटें मिल गयी। 2007 में यूकेडी ने 61 सीटों पर चुनाव लड़ा और 5.49 मत प्रतिशत हासिल कर तीन सीट जीत ली थी। 2012 में यूकेडी का मत प्रतिशत घटा और 3.18 प्रतिशत मत मिले और एक सीट। वहीं रक्षा मोर्चा को 42 सीटों पर लड़ने के बाद पहली बार में 3.25 प्रतिशत वोट मिल गये। यानी क्षेत्रीय दलों का मत प्रतिशत लगभग 7 प्रतिशत हो गया। यदि मिलकर लड़ते तो 6-7 सीटें जीत जाते। 2017 में जब मोदी की आंधी थी तो यूकेडी को 0.9 प्रतिशत वोट मिले। कांग्रेस को छोड़कर सभी छोटी पार्टियों को 19 प्रतिशत वोट ही मिले।
यदि राजनीति तौर पर आकलन किया जाएं तो यदि कोई दल उत्तराखंड में 10 प्रतिशत मत वटोर ले तो उसे आठ से दस सीट मिल जाएंगी। जैसे 2012 में बसपा को मिल गयी थी। यानी 6 प्रतिशत वोट बैंक क्षेत्रीय पार्टियों का है। इस बार क्षेत्रियता की लहर है। काशी सिंह ऐरी और दिवाकर भट्ट बूढ़, बेकार, स्वार्थी और स्वयं पर केंद्रित नेता हैं लेकिन यूकेडी के पास कुछ अच्छे और युवा नेता हैं उनको लेकर गठबंधन किया जा सकता है। भाजपा बुरी तरह फेल हो चुकी है और कांग्रेस से उम्मीद नहीं। हालांकि समय कम है लेकिन यदि 20 सीटों पर भी मजबूती से चुनाव लड़ा जाएं तो किंगमेकर बना जा सकता है। साथ ही पहाड़ के जिंदा रहने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। ऐसे में किशोर दा को साहस जुटाना चाहिए। कांग्रेस छोड़ कर नया दल और नया इतिहास बनाना चाहिए। वो इसलिए कि वो संपन्न भी है और राजनीतिक तौर पर अनुभवी भी। घायल भी हैं और उन्होंने पहाड़ के पलायन की पीड़ा भी झेली है।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]