कोई 84 साल की उम्र में पिता बन जाता है तो कोई सीएम के ख्वाब देखता है
इस सेहत का राज है अनयूज्ड दिमाग, बिल्कुल प्योर है हमारे नेताओं का दिमाग
उत्तराखंड के 90 प्रतिशत नेताओं के दिमाग की जांच की जाए तो पता चलेगा कि उसका इस्तेमाल तो हुआ ही नहीं है। बिल्कुल अनयूज्ड दिमाग है। विरासत में कुर्सी मिल गयी और दलाली से पैसा। तमाम विकास योजनाएं दूसरे राज्यों या देशों से चुरा ली और थोप दी उत्तराखंड पर। यूपी से अलग हो गये लेकिन सारे नियम-कायदे और योजनाओं का खाका पूरा का पूरा उत्तराखंड में उतार लिया और यूपी मिटाकर लिख दिया उत्तराखंड। काहे को दिमाग खपाना। अनयूज्ड और प्योर है तो प्योर ही रहने दो।
बाकी फूटी किस्मत जनता की। वो तो भेड़ हैं। भेड़ गुटों में बंट जाती है। अधिकांश नेताओं की जीत उनके निजी दम पर तो होती नहीं, पार्टी टिकट के आधार पर होती है। इसलिए चुनाव जीतने के लिए दिमाग क्यों लगाना। माफिया, ठेकेदार, दलाल और अफसरों की एक टीम है जो दारू, मुर्गा, और वोट खरीद देती है। चुनाव में भी नेता का दिमाग फिर अनयूज्ड रह गया।
अब विकास करना है या रोजगार देना है तो रिफ्लेक्सोलॉजी यानी पैरों की थैरेपी जैसे आइडिया भी चोरी कर लो। वैष्णो देवी की तर्ज पर पैरों की मालिश कर हजार रुपये प्रतिदिन कमाई का दावा कर रहे हैं नेताजी। ये जानते हुए भी कि जो सेठ लोग हैं वो या तो हेलीकॉप्टर से जाते हैं या डंडी-कंडी से। गरीब भला 300 रुपये देकर पैरों की मालिश कराएगा?
सतपाल महाराज तो गजब के आइडिया चोरी करते हैं। विदेश गये तो खर्च पूरा सरकार के खाते में डालना है तो योजना ले आए कि अंडर द स्काई। पहाड़ की चोटी में खुले आसमान के नीचे एक बेड हो, एक लैंप जल रहा हो और सैलानी वहां सो रहा हो। गजब, ये भी नहीं सोचा कि पहाड़ में गुलदार हैं, यदि सैलानी को गुलदार उठा ले गया तो? है न अनयूज्ड ब्रेन वाली बात।
महाराज तो महाराज हैं, उन्हें पैरों की कीमत का एहसास है। हजारों भक्त उनके पैरों पर गिरते हैं इसलिए चाहते हैं कि जनता भी रोजगार पैरों से ही हासिल करें। यानी पैरों से ऊपर न जाएं। इसलिए, रिफ्लेक्सोलॉजी ले आए। सही है कि हम रोजगार चाहते हैं लेकिन वैष्णो देवी की तर्ज पर न तो देवस्थानम बोर्ड कारगर है और न ही रिफ्लेक्सोलॉजी।
सरकार, बताओ तो घस्यारी, पिरूल से बिजली, भांग की खेती के प्रोजेक्ट कहां तक पहुंचे? क्या दिमाग नहीं लगा सकते कि उत्तराखंड के उत्पाद, यहां की संपदा, कच्चा माल और यहां की परिस्थितियों के अनुसार ही रोजगार के अवसर सृजित किये जा सकें। लेकिन दिमाग नहीं लगाना। जनता को भेड़ समझना है और सत्ता पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार। यही कारण है कि उत्तराखंड के नेता रिटायर्ड नहीं होते। दिमाग खर्च होगा तो बीमारियां लगेंगी। जब दिमाग ही खर्च नहीं होगा तो सेहत बिगड़ेगी कैसी? इसलिए 70-80 साल की उम्र में भी बाप बन जाते हैं और इस उम्र में भी सीएम पद के दावेदार।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]