- कुरीतियों के खिलाफ लड़ी जंग, चलाया जन-जागरूकता अभियान
- यूकेडी के संरक्षक रहे, राज्य आंदोलन में थी बड़ी भूमिका पर चिन्हीकरण नहीं हुआ
आज सुबह जब उठा तो एक दुःखद समाचार मिला। लंबगांव स्कूल के प्रधानाचार्य रहे विद्यादत्त रतूड़ी का कल रात एम्स में हार्ट अटैक के बाद निधन हो गया। सहसा विश्वास ही नहीं हुआ। लगभग चार-पांच दिन पहले उनसे बात हुई थी। देवल के ओणेश्वर महादेव पर मैंने एक डाक्युमेंट्री बनाई थी, उस संबंध में बात हुई थी। टकाटक आवाज थी। गुरुजी का मुझ पर विशेष स्नेह था। अक्सर मुझे फोन करते और हालचाल पूछते। समाज में व्याप्त विसंगतियों पर लंबी चर्चा करते। 96 साल की उम्र में भी वह समाज के प्रति संवेदनशील थे और किसी भी घटना पर व्यथित हो जाते। अंकिता भंडारी हत्याकांड से बहुत व्यथित थे। मुझसे कहा, बताओ, समाज कहां जा रहा है। देवभूमि में दानव कहां से आ गए? मैं निरुत्तर था।
विद्यादत्त रतूड़ी 1953 में लंबगांव स्कूल के प्रिंसिपल बन गए थे। वह बेहद अनुशासन प्रिय शिक्षक थे। गुरु-शिष्य परंपरा के तहत वो अपने शिष्यों को सुबह चार बजे उठाकर पढ़ने के लिए उठा देते थे। सख्त स्वभाव के गुरु थे तो सम्मान भी बहुत था। उन्होंने शराब, मंदिरों में बलि प्रथा, कन्या विक्रय जैसी कुप्रथाओं के खिलाफ जनजागरूकता अभियान चलाया। लम्बगांव इलाके में रामलीला शुरू करने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। उस समय यह कहा जाता था कि एक राज्य में दो राजाओं का राजतिलक नहीं हो सकता। चूंकि टिहरी राजवंश था। लेकिन उन्होंने टिहरी राजवंश की परवाह नहीं की। कन्याओं को शिक्षा के लिए प्रेेरित किया तो बांज के जंगलों को बचाने का अभियान चलाया। स्वच्छता अभियान चलाने का श्रेय भी उन्हीं को है।
गुरुजी विद्यादत्त रतूड़ी, इंद्रमणि बडोनी के साथी थे और यूकेडी के संरक्षक थे। उन्होंने टिहरी से भी चुनाव लड़ा और अच्छे खासे वोट लिए थे। विडम्बना है कि त्रिवेंद्र पंवार जो उनके मुख्य चुनाव एजेंट थे, कल उनका हादसे में निधन हो गया तो आज गुरुजी का। गुरुजी ने उत्तराखंड आंदोलन में सक्रियता से भाग लिया। पूरे उत्तराखंड से लेकर दिल्ली -एनसीआर तक अलग राज्य के लिए संघर्ष किया लेकिन जब बात राज्य आंदोलनकारियों का चिन्हीकरण हुआ तो उनको छोड़ दिया गया। इसका उन्हें जीवन भर मलाल रहा। उनका कहना था कि बात सम्मान की थी, जो उन्हें नहीं मिला। उन्होंने राज्य गठन से पहले ही यूकेडी और राजनीति छोड़ दी थी। उनके अनुसार वह राजनीति के लिए नहीं बने। इसके बाद शिक्षा से ही जुड़े रहे।
2010 में हरिद्वार महाकुंभ में देवडोलियां लाने का श्रेय भी गुरुजी को ही है। 1200 से भी अधिक देवडोलियों ने हरिद्वार में गंगा स्नान किया और एक नई परंपरा ने जन्म लिया। 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद मृतकों की आत्मा की शांति के लिए उन्होंने ऋषिकेश में महायज्ञ किया। वह मुझसे अक्सर कहते रहे कि शांतिकुंज के साथ मिलकर समाज के कल्याण के लिए एक बड़ा सम्मेलन करेंगे। 95 साल की उम्र में भी उनका यह जज्बा देख मुझे रश्क होता। ऐसे लोग कितने होते हैं, जो समाज के लिए इतने समर्पित हों।
आज गुरूजी के निधन के साथ ही गुरु-शिष्य परंपरा के एक युग का अंत हो गया है। आपकी दी हुई सीख हमेशा याद रहेगी। गुरुजी को विनम्र अश्रुपूरित श्रद्धांजलि।
(वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से)