एक और सक्रिय आंदोलनकारी की गुमनाम मौत

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  • 6 साल एक कमरे में बिस्तर पर गुजार दिए
  • नेता को बुखार होता है तो सरकारी खर्च पर मेदांता में हो जाता है भर्ती

उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी और 1971 भारत-पाक युद्ध के हीरो बब्बर गुरंग का कल निधन हो गया। 86 वर्षीय गुरंग की गुमनाम सी मौत हुई। वह विगत 6 साल से भी अधिक समय से बिस्तर पर ही थे। जीवन की सांध्यबेला में जब उन्हें सबसे अधिक अपने साथियों और सरकार की मदद की दरकार थी तो सबने उन्हें दुखों के अनंत सागर में अकेला छोड़ दिया। बब्बर गुरंग को 1971 के युद्ध में दुश्मनों की मशीनगन की गोली लग गई थी तो उनका एक पैर चार इंच छोटा हो गया था। इस कारण बुढ़ापे में उनके पैरों की शक्ति चली गई थी और उन्हें अपने ही घर के एक कमरे में कैद रहना पड़ा।
मैं उनसे जब मिला था तो उनकी बातों से दुखी था कि हमने अपने उन वीर सपूतों की परवाह ही नहीं की जिन्होंने यह राज्य बनाया। और जो चोर, दलाल और कमीशनखोर थे, वो हमारे राज्य के भाग्यविधाता बन गए। बब्बर आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी कही बात दिल पर नश्तर की तरह चुभ रही है कि 71 के युद्ध में दुश्मन के दिए घावों से भी गहरी पीड़ा इस बात से हो रही है कि उनकी इतनी घोर उपेक्षा हुई।
वार डिसेबल के बाद वह सेना से रिटायर हो गए। 1994 में जब राज्य आंदोलन हुआ तो वह और उनकी पत्नी शकुन दोनों ही गोरखा क्रांति मोर्चा के माध्यम से आंदोलन से जुड़ गए। मन में राज्य के विकास की उत्कंठा थी। लगा कि यूपी में रहने से हमारा विकास नहीं हो सकता। दोनों पति-पत्नी को कई बार पुलिस की लाठियां भी पड़ी। हवालात मंे भी बंद रहे। अलग राज्य की मांग को लेकर दिल्ली में 27 दिन तक भूख हड़ताल भी की। दुःखद यह रहा कि उनको राज्य आंदोलनकारी के चिन्हीकरण के लिए भी 2022 तक इंतजार करना पड़ा। फौज से रिटायर छोटे बेटे विनय ने पिता की इन 6 वर्षों के दौरान बहुत सेवा की। विनय के मुताबिक उन्होंने पिछले 15 दिनों से खाना-पीना छोड़ दिया था। आज उनका अंतिम संस्कार टपकेश्वर घाट पर होगा।
एक के बाद एक राज्य आंदोलनकारियों का निधन हो रहा है। अधिकांश गुमनामी की जिंदगी बसर कर रहे हैं। वो लोग जिनके लिए राज्य बनाया, आज भी उपेक्षित और हाशिए पर हैं और जो राज्य के लिए लड़े ऐसे बिना इलाज और उपेक्षित दम तोड़ रहे हैं। तो यह राज्य आखिर हमने किसके लिए बनाया?
देश के वीर सपूत और उत्तराखंड राज्य के जननायक बब्बर गुरंग को विनम्र श्रद्धांजलि।
(वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार)

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