- एहसास आज भी है मेरे हाथ पर गिरी आपके आंसुओं की गरम बूंदों का
- वक्त बदला, राज्य मिला लेकिन नहीं बदली तो दादा-दादी की तकदीर
आज सुबह जल्दी उठ गया। दादी जी का श्राद्ध था। यूं तो भगवान से जीवन पर्यंत ही जंग चल रही है न वो जीतता है न वो मुझे हारने देता है। लेकिन एक श्राद्ध ही ऐसा है जब मैं घर के मंदिर में नतमस्तक होता हूं। नहा-धो कर पूजा-अर्चना की। रीतिपूर्वक भोग लगाया। मुझे परिजन समेत कई लोग कहते हैं कि दादा-दादी का श्राद्ध मां-पिता करते हैं, लेकिन मैं इसकी परवाह नहीं करता। हर साल अपने पितृों को याद करता हूं। दादा-दादी को तो याद करने का सवाल ही नहीं, क्योंकि उन्हें मैं भूला ही नहीं। दादा-दादी की कमी आज भी बहुत खलती है।
मेरी दादी एक बहुत ही साधारण महिला थी। स्कूल भी नहीं गयी, लेकिन परिवार चलाना उन्हें खूब आता था। परम्परागत वस्त्र पहनती और गहने पहनती। दादा जर्मन एम्बेसी में थे। दादी को दिल्ली आने के लिए कहते। दादी ने गांव नहीं छोड़ा। चार-चार बहुओं को संभाल कर रखा। हम बच्चों को अच्छे संस्कार दिये। आज लगभग सभी अच्छे पदों पर हैं और अपनी माटी और थाती से जुड़े हैं। दादी जब तक (2006) जिन्दा रही तब तक हमारा संयुक्त परिवार था।
जैसा कि आज भी होता है, पहाड़ों में शिक्षा और स्वास्थ्य का बुरा हाल है। लगभग चार दशक पहले मुझे भी उज्ज्वल भविष्य की खातिर पढ़ने के लिए दिल्ली भेज दिया गया। सात-आठ साल की उम्र। हमारे गांव से सड़क नजदीक ही है तो उस दिन दादी मुझे सड़क तक छोड़ने के लिए आई। अक्सर दादी हिदायत देती थी, डांटती थी, प्यार करती थी। लेकिन उस दिन चुप थी। मैं शहर जाने के सपनों में डूबा था। उछल रहा था, उत्साहित था। दादी ने मेरा हाथ पकड़ा था। अचानक मुझे महसूस हुआ कि मेरे हाथ पर गरम-गरम बूंदें गिर रही हैं। दादी के चेहरे की ओर देखा तो उनकी आंखों से गंगा-जमुना बही जा रही थी। सारा उत्साह वेदना में तब्दील हो गया। दादी और गांव छूटने की पीड़ा सताने लगी। मैं दादी के उन आंसुओं को आज तक नहीं भूल सका। दादी और मैं हर साल गर्मियों की छुट्टियों का इंतजार करते। साल के दो महीने बहुत खास होते। दादी बहुत खुश और मैं भी। लेकिन न दादी के आंसू कम हुए और न मेरी पलायन की पीड़ा।
दरअसल, दादी के वो आंसू हमारे पहाड़ की हर दादी की नीयति है। पहाड़ों की नीयति आज भी वही चार दशक पूर्व जैसी है, यानी हवा, पानी और जवानी कुछ भी पहाड़ के काम का नहीं। सब बह जाता है मैदानों की ओर। मैं दिल्ली, मुंबई और भी अनेक शहरों में पला-बढ़ा। जीवन में कुछ कर गुजरने की जिद आज भी बरकरार है। संभवतः मैं जीवन में वैसा सफल इंसान होता, जैसा आज की दुनिया में माना जाता है, रुपया-पैसा, शानो-शौकत। पढ़ाई में भी बहुत अच्छा रहा। लेकिन हथेली और हाथ पर गिरी उन आंसुओं की बूंदों ने मुझे कभी चैन से नहीं रहने दिया।
मैंने ठाना था कि एक दिन मैं पहाड़ लौटूंगा। एक युद्ध लड़ूंगा अपनी दादी और उन समस्त दादियों और पोते-पोतियों के लिए, जिनको पलायन की पीड़ा का सामना करना पड़ा। मैं महानगरों की चमक दमक छोड़ लौट आया। मैं युद्ध लड़ रहा हूं अपने पहाड़ के लिए। भले ही ये छोटी लड़ाई हो, लेकिन मुझे सुकून देती है कि मैं योद्धा हूं। कई बार हताश होता हूं, हारा हुआ महसूस करता हूं, अभावों के कारण कभी-कभी टूट सा जाता हूं, लेकिन फिर मुझे एहसास होता है दादी के आंसुओं का और मैं एक नई ऊर्जा से भर जाता हूं। लोग मुझे अक्सर कहते हैं कि क्या तुम्हें डर नहीं लगता। इतने ताकतवर लोगों से लड़ते हुए। हां, लगता है, लेकिन उन आंसुओं का क्या? जो आज भी दादी की आंखों से बह रहे हैं। तब डर गायब हो जाता है। ये युद्ध जारी रहेगा। दादी की कमी मुझे खलती है और उसकी पूर्ति उम्र भर नहीं होगी। मेरी दादी बहुत खास है मेरे लिए, क्योंकि उनके दिये संस्कार मुझमें विद्यमान हैं। दादी सहित सभी पितृों को नमन।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]