‘गैरों पर करम, अपनों पर सितम‘, सरकार, ये जुल्म न कर

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  • अक्षय कुमार के लिए पलक-पांवडे बिछाए, उर्मि नेगी उपेक्षित क्यों?
  • वोट के लिए केरल स्टोरी देखी, बथौं, सुबेरो घाम-2 में क्यों नहीं दिखी, पहाड़ की पीड़ा

फिल्म एक्टर अक्षय कुमार 11 दिन उत्तराखंड में फिल्म की शूटिंग करने के बाद वापस मुंबई लौट गये। बड़ा कलाकार है। सारे गुण हैं कि आम काटकर खाते हो या चूस कर। मार्केटिंग आती है। खुद को भी बेचना और फिल्म को बेचना भी। प्रदेश सरकार अक्षय के लिए मरी जा रही थी। जैसे पूरी सरकार अक्षय ही चलाता हो। जबकि इसकी तुलना में गढ़वाली फिल्म निर्माता व एक्टर उर्मि नेगी ने उत्तराखंड को अपनी फिल्म बथौं, सुबैरो घाम दो से नई पहचान भी दी। पहाड़ के ज्वलंत मुद्दे भी उठाए और यहां मर रहे गढ़वाली सिनेमा के कलाकारों को आक्सीजन भी दी। बथौं-सुबेरो घाम दम तोड़ रहे गढ़वाली सिनेमा के लिए वेंटीलेटर का काम कर रही है। इसके बावजूद सरकार की उदासीनता अखरती है।
सीएम धामी सपरिवार द केरला स्टोरी को देखने पहुंच गये। वहां उन्हें फिल्म हकीकत लगी। लेकिन उर्मि नेगी कृत बथौं-सुबेरो घाम जो कि पहाड़ के पलायन और दर्द को उकेरती है। उस फिल्म पर चुप्पी साधे रहे। उनके मुंह से दो शब्द फिल्म के लिए नहीं फूटे। इस फिल्म को भी देख लेते तो क्या बिगड़ जाता? पता तो चलता कि भाजपा सरकार पहाड़ आबाद करने के मामले में कितनी निकम्मी है। पूर्व सीएम त्रिवेंद्र चचा तो फिल्म देख आए। उनके समर्थक जुगाड़ में थे कि फ्री देख लें, लेकिन उनकी दाल नहीं गली।
उर्मि नेगी पहाड़ की बेटी है। 16 साल की उम्र में वह मायानगरी चली गयी। और अपनी जिंदगी के पिछले चार दशक उसने हिन्दी और गढ़वाली सिनेमा को दिये हैं। उन्होंने गढ़वाली सिनेमा को जिंदा रखा है और यहां के कलाकारों को भी।
सीएम धामी चाहते तो उर्मि नेगी की इस फिल्म को प्रमोट कर सकते थे। लेकिन उन्हें तो वोट की चिन्ता है, पहाड़ की नहीं। पहाड़ी किसी काम के नहीं हैं। उन्हें सिर्फ हिन्दू धर्म खतरे में नजर आता है, पहाड़ नहीं। उनके लिए फ्री में पांच किलो राशन बहुत बड़ी उपलब्धि है और मंत्रियों और नेताओं के करोड़ों का गोलमाल कुछ भी नहीं।
यदि किसी कौम को खत्म करना हो तो उसकी संस्कृति मार दो। आज उत्तराखंड में यही हो रहा है। गढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसारी बोलियों पर खतरा है। पहाड़ में लोक संस्कृति की छटा नजर नहीं आती। देहरादून-हल्द्वानी के मंचों में ही संस्कृति संरक्षण का काम हो रहा है। ऐसे में यदि उर्मि पहाड़ की पीड़ा को उकेरेने का प्रयास कर रही है। अपनी संस्कृति और कला को बचाने का प्रयास कर रही है तो उसका साथ देने में सरकार झिझक क्यों रही है? यह मेरी समझ से परे है। सरकार सुबेरो घाम को टैक्स फ्री करें और इस फिल्म को प्रमोट भी करे ताकि क्षेत्रीय सिनेमा को नई जान मिल सकें।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

‘लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में, यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है‘

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