…और शांत हो गयी जनांदोलनों की मुखर आवाज

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  • राज्य तो मिला मगर वो सम्मान नहीं मिला, जिसकी असल हकदार थी सुशीला बलूनी
  • मुरली मनोहर जोशी न अड़ते तो सुशीला बलूनी होती राज्य के विकास की सूत्रधार

वर्ष 2007 का विधानसभा चुनाव था। एनडी तिवारी सरकार को लेकर जनता में आक्रोश था। तय माना जा रहा था कि जनता सत्ता बदलेगी। देहरादून के रेलवे रोड स्थित जैन धर्मशाला में भाजपा के टिकटों का वितरण होना था। भाजपा के दिग्गज नेता मुरली मनोहर जोशी और जनरल बीसी खंडूड़ी समेत वरिष्ठ नेता टिकट फाइनल कर रहे थे। राजपुर सीट से सुशीला बलूनी का टिकट फाइनल माना जा रहा था। सभी राज्य आंदोलनकारी भी सुशीला के समर्थन में थे। जनरल खंडूड़ी और भाजपा के कई वरिष्ठ नेता सुशीला बलूनी को टिकट देने के पक्षधर थे लेकिन मुरली मनोहर जोशी अड़ गये कि टिकट गणेश जोशी को दिया जाए उनका साथ दिया प्रभारी रविशंकर प्रसाद ने। रविशंकर प्रसाद ने क्यों हामी भरी होगी, समझा जा सकता है।
जनरल खंडूड़ी बहुत निराश हो गये थे। वह दिल से चाहते थे कि टिकट सुशीला बलूनी को मिले। आखिर जोशी की जिद के आगे किसी की नहीं चली और सुशीला बलूनी का टिकट कट गया। गणेश जोशी ने अपने कार्यकाल में जिस कार्यसंस्कृति को जन्म दिया, इसके लिए भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी ही असल जिम्मेदार हैं। सुशीला बलूनी खुलेआम कहती रही कि राज्य के लिए भस्मासुर पैदा कर दिया।
हालांकि सुशीला बलूनी राज्य आंदोलनकारी सम्मान परिषद और महिला आयोग की अध्यक्ष भी रहीं, लेकिन जिस सम्मान की वो हकदार थी, वह उन्हें कभी मिला ही नहीं। भाजपा ने पिछले एक दशक से उन्हें पूछा ही नहीं और उनकी मजबूरी थी कि इस लेबल को वह हटा ही नहीं सकी।
84 साल की उम्र में राज्य आंदोलनकारी सुशीला बलूनी का कल निधन हो गया। जन आंदोलनों की एक मुखर आवाज शांत हो गयी। सभी राज्य आंदोलनकारी उन्हें प्यार से ताई कहते थे। गत वर्ष एक मई को उत्तरजन टुडे की सातवीं वर्षगांठ पर ओएनजी पालीटेक्निक सभागार में आयोजित कार्यक्रम में हमने उनको और पिछले कई वर्ष से बिस्तर पर लेटे राज्य आंदोलनकारी बब्बर गुरंग को सम्मानित किया था। उस दौरान उनकी पीड़ा छलकी थी कि शहीदों के सपनों का उत्तराखंड नहीं बन सका। उनके मन में यह टीस थी कि सब कुछ त्याग और संघर्ष के बाद आखिर हमें हासिल हुआ क्या?
वह ताउम्र उत्तराखंड के लिए जूझती रही, संघर्ष करती रही, लड़ती रही। पहाड़ के प्रति उनके समर्पण, जुझारूपन, जीवटता और त्याग को भावभीनी श्रद्धांजलि।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

कभी मूंगफली बेचता था परिवार, अब पहाड़ बेचने लगे

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