- नये विकल्प और नये चेहरों की जरूरत, संभले नहीं तो पहाड़ बनेगा मंकीलैंड
- संसद तक पहुंचे गुलदार और बंदरों की के आतंक की बात
जोशीमठ समेत हिमालय दरक रहा है। कुमाऊं के हिमालय में भी 77 झीलें बनी हैं। चोराबाड़ी ग्लेश्यिर की झील ने 2013 में केदारनाथ में तबाही मचा दी थी। हिमालय की चिन्ता किसे है? दिल्ली से रिमोट कंट्रोल सरकार इस बार 50 लाख लोगों को चारधाम लाने की तैयारी में है। उधर, गांव से पलायन जारी है। पिछले 22 साल में लगभग डेढ़ लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि बंजर हो गयी है। कारण, सूअर, बंदर का डर। गुलदार की धमक से गांव खाली हो रहे हैं। कोई सुन रहा है क्या? महिलाएं जंगलों, खेतों या रास्तों में ही प्रसव कर रही हैं। सुदूर गांव के लोग आज भी बिना इलाज जान गंवा रहे हैं। किसी को परवाह है क्या?
उधर, हम सब गहरी नींद में है। मोदी, कथित हिन्दुत्व और छदम राष्ट्रवाद ने हमें सम्मोहित किया है। क्या जब सब लुट जाएगा तो ही हम इस सम्मोहन से बाहर आएंगे? अंकिता और श्रद्धा बेटियों की हत्या और उनकी चीखें भी हमें नींद से नहीं जगा पा रही हैं।
इंद्रेश मैखुरी, अतुल सती और आशुतोष नेगी जैसे लोग इस सम्मोहन को तोड़ने के प्रयास में हैं। वह हमें जगाने में जुटे हैं, लेकिन हम नींद से उठना ही नहीं चाहते। पहाड़ बचाना है तो हमें नींद से उठना ही होगा। विकल्प तलाशने होंगे। ऐसे चेहरों को प्रतिनिधित्व देना होगा जो पहाड़ की वादियों से होकर संसद के गलियारे तक पहाड़ियों की व्यथा और दर्द को पहुंचा सके। उसका समाधान तलाशने के प्रयास कर सकें। संसद में भी हमें नया नेतृत्व चाहिए, भाजपा और कांग्रेस से इतर।
क्षेत्रीय दल टुन्नी मछलियां हैं। भाजपा और कांग्रेस शार्क। लेकिन यदि टुन्नी मछलियां एक बड़ा घेरा बना लें तो उनका आकार शार्क से भी बड़ा हो सकता है। कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। जोर-अजमाइश करो। नये विकल्प चुनो। नये नेतृत्व को मौका दो। नहीं तो पहाड़ का बेड़ा गर्क तय है। पहाड़ मंकी लैंड बन जाएगा।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]