लानत है उत्तराखंड के संस्कृति विभाग और संस्कृति मंत्री को

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  • बेटा न होता तो भूख से मर जाता: जगदीश ढौंडियाल
  • 9 साल गुमनामी की जिंदगी जीने वाले एक फनकार की पीड़ा, पुरस्कार मिला तो दुनिया ने जाना

इस पोस्ट को अथाह पीड़ा, गुस्से और क्षोभ के साथ लिख रहा हूं। हम लोग बहुत गंदे हैं। बहुत ही गंदे। हम अपने बड़ों का आदर नहीं करते। अपनों को स्पेस नहीं देते। जिस परिवार में बड़ों को सम्मान नहीं दिया जाता वह भला खुशहाल कैसे हो सकता है। जब हम ऐसे हैं तो ऐसे में हमारा प्रदेश नंबर वन और खुशहाल और समृद्ध कैसे हो सकता है? यह बात मैं हाल में संगीत नाटक एकादमी के अमृत पुरस्कार से सम्मानित होने वाले फनकार जगदीश ढौंडियाल की स्थिति को देखकर कह रहा हूं। जयपुर घराने का कथक में महारत हासिल करने वाला यह फनकार पिछले 9 साल से देहरादून में गुमनामी की सी जिंदगी जी रहा है। यदि संगीत नाटक एकादमी पुरस्कार की घोषणा नहीं होती तो हम एक फनकार को यूं ही खो देते। बहुत ही दु:खद और पीड़ादायक है यह स्थिति। लानत है हमारे संस्कृति विभाग को। लानत में संस्कृति मंत्री सतपाल महाराज को।
77 वर्षीय फनकार जगदीश ढौंडियाल का पूरा जीवन कला को समर्पित रहा है। उन्होंने 1958 में दिल्ली के गोल मार्केट की रामलीला में लक्ष्मण का अभिनय करना शुरू किया और 35 साल तक अभिनय किया। उन्होंने महान कवि जयशंकर प्रसाद की कामायनी पर आधारित नृत्य नाटिका में मनु की भूमिका में देश भर में 2500 से भी अधिक प्रस्तुतियां दीं। वह कथक के नृत्य निर्देशक भी हैं। 18 साल जयपुर घराने के प्रख्यात गुरु हजारीलाल से कथक की बारीकियां सीखी। उनको गायन, नृत्य और निर्देशन में महारत हासिल है। उनके लिखे गीत और नृत्य 1984 और 1994 में 26 जनवरी की परेड में राजपथ पर भी गूंज चुके हैं।
जीवन यूं ही मुफलिसी में गुजर गया। बच्चों को समय ही नहीं दे सके। जब अर्द्धागिंनी की सबसे अधिक जरूरत थी, तो वह अधर में छोड़ परलोक सिधार गयी। अब रह गयी यादें और साथ देने के लिए हारमोनियम। 2014 में दिल्ली से देहरादून बेटे प्रभाकर के पास आ गया। दर-दर भटके, लेकिन किसी ने भी सुध नहीं ली। कला के कद्रदान कहां हैं अब? मैंने पूछा, कोरोना काल कैसे बीता? हल्की सी मुस्कराहट के साथ बोले, बेटा नहीं होता, तो फनकार के तौर पर भूख से मर जाता।
बाकी बहुत कुछ है लिखने को। उत्तरजन टुडे के दिसम्बर अंक में लिखूंगा। दुख केवल इतना है कि हम आखिर कहां और किस ओर जा रहे हैं? अपनों का साथ छोड़कर शिखर पर चढ़ना चाहते हैं। भला अपनी जड़ों से कटकर कोई शिखर पर खड़े रह सकता है?
फनकार जगदीश ढौंडियाल को उनकी साधना के लिए कोटि-कोटि नमन। संगीत नाटक पुरस्कार के लिए हार्दिक शुभकामना।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

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