‘धस्माना‘ और ‘घनशाला‘ के तिलस्म से बाहर निकले गढ़वाल सभा

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  • गढ़रत्न सम्मान के लिए पहाड़ में हैं कई नगीने
  • युवा उद्यमियों और सामाजिक सरोकारों से जुड़े लोगों को मिले सम्मान

इस बार अखिल गढ़वाल सभा के कौथिग में कुछ नयापन नजर आया। लेकिन कल सब कुछ अजीब सा लगा। गढ़वाल सभा ने हिमालयन यूनिवर्सिटी के विजय धस्माना और ग्राफिक एरा के कमल घनशाला को गढ़रत्न सम्मान दिया। दोनों ही महानुभाव सम्मान लेने के लिए आए ही नहीं। दोनों के पास महान बहाने थे। जबकि गढ़वाल सभा को यह सच स्वीकारना चाहिए कि ये दोनों व्यवसायी हैं और गढ़वाली की भावना से कहीं ऊपर उठ चुके हैं।
यह सच है कि गढ़वाल सभा की नींव में इन दो पूर्व गढ़वालियों की अहम भूमिका रही है और आज भी सभा के पदाधिकारी चंदा मांगने के लिए इनके दरबार में पहुंच जाते हैं। विजय धस्माना ने टाउन हाल सभागार में एक बार खुले मंच से कह दिया था कि भीख मांगने मेरे पास आ जाते हैं। कमल घनशाला तो अपने ही किसी विद्यार्थी को आगे बढ़ता हुआ नहीं देख सकते। पूरा जोर लगा रहे हैं कि वह संस्थान खड़ा न हो सके। व्यवसाय है तो प्रतिस्पर्धा भी होगी। लेकिन ऐसा भी क्या कि बरगद बन जाओ, किसी को पनपने ही न दो। मेरा मानना है कि गढ़वाल सभा को धस्माना और घनशाला के तिलस्म से बाहर आना चाहिए। अच्छी योजना बने, अच्छे प्रोग्राम बने तो फाइनेंसर भी जुट जाते हैं, बशर्ते नीयत अच्छी हो।
प्रीतम भरतवाण को पदमश्री मिल चुका है। इसलिए उनके लिए गढ़रत्न का कोई औचित्य नहीं है। वैसे भी जब से प्रीतम को पदमश्री मिला है उनके मुंह पर ताला सा पड़ गया है। उनकी जागर एकादमी का अता-पता नहीं है लेकिन कल स्टेज से दावा किया गया कि सैकड़ों कलाकार ढोल सीख रहे हैं। कहां, मुझे भी नहीं पता। जबकि कोरोना काल में लोक कलाकारों की हालत बहुत दयनीय थी। लोक कलाकार भुखमरी के कगार पर थे लेकिन प्रीतम भरतवाण के मुंह से एक बोल नहीं निकला।
ऐसे में गढ़वाल सभा ने तीन सम्मान बेकार दे दिये। प्रो. डीआर पुरोहित और डा. जयंत नवानी को सम्मानित करने का सही फैसला था। यह दोनों उत्तराखंड के कोहिनूर हैं। पिछले पांच-सात साल में उत्तराखंड में उद्यमियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, पहाड़ के लिए समर्पित लोगों की एक लंबी पौध उगी है। गढ़वाल सभा यदि ज्यूरी बनाकर सम्मानित होने वाले लोगों को चुनती तो बेहतर होता।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

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