- ईमानदार अभ्यर्थियों को सजा क्यों, परीक्षाएं रद्द करने का फैसला सरासर गलत
- सीएम साहब, ये कोई चुनाव नहीं कि खटीमा से हार गये तो चम्पावत से जीत जाओ!
प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत कहता है कि चाहे सारे गुनाहगार छूट जाएं, लेकिन बेकसूर को सजा नहीं होनी चाहिए। लेकिन धामी सरकार तो इस सिद्धांत के खिलाफ ही जा रही है। भर्ती परीक्षाओं में धांधली के मामले में सीएम धामी बुरी तरह से फंस चुके हैं। यह मामला उनके गले की फांस बन गया है। तीन भर्ती परीक्षाएं उनके ही समय की हैं। ऐसे में उन्होंने इस मुसीबत से छुटकारे के लिए सीधा और राजनीतिक उपाय निकाला है कि भर्ती परीक्षाएं रद्द कर दो? वह जानते हैं कि परीक्षाएं रद्द होंगी तो नियुक्ति पाए लोग कोर्ट की शरण में जाएंगे। जो अभ्यर्थी पास नहीं हो सके, वह खुश हो जाएंगे। मामला टल जाएगा।
सीएम साहब, आपने कभी नौकरी के लिए कोई टेस्ट दिया है क्या? वर्षों की मेहनत लगती है। अभ्यर्थी एक अदद नौकरी के लिए नियमित 10 से 12 घंटे पढ़ता है, और तीन चार घंटे टेंशन में रहता है कि उम्र निकल रही है, आखिर भर्ती विज्ञप्ति कब निकलेगी? विज्ञप्ति निकलने के बाद परीक्षा की तैयारी और जोरों से होती है। परीक्षा के बाद महीनों तक रिजल्ट का इंतजार। एक अभ्यर्थी की नौकरी की तैयारियों से अकेला वही प्रभावित नहीं होता, पूरा परिवार होता है। मां-बाप की उम्मीदें, भाई-बहन की दुआएं और खुद के सपने। और जब इस तरह से परीक्षा में पेपर लीक या गड़बड़ी होती है तो अकेला अभ्यर्थी नहीं रोता, पूरा परिवार खून के आंसू रोता है। किसी बेरोजगार के परिजनों से पूछना कि उसे कैसा महसूस होता है जब समाज उससे पूछता है कि बेटा या बेटी क्या कर रही है? जवाब देते नहीं बनता। भर्ती परीक्षाएं रद्द कर आप उन बच्चों के सपनों की हत्या कर रहे हैं, जिन्होंने ईमानदारी से परीक्षाएं देकर नौकरी हासिल की है। दोबारा कोई गारंटी नहीं कि वह फिर मेरिट में आ जाएं।
सीएम साहब, हम लोग मध्यमवर्गीय परिवार से हैं। हमारी कुल जमा-पूंजी हमारे बच्चे हैं। हम जीवन भर की सारी कमाई बच्चों में निवेश करते हैं। ईमानदारी से सलेक्ट हुए बच्चों की मेहनत पर इस तरह से कुठाराघात न करो। यदि आपकी पुलिस इस मामले को नहीं सुलझा पा रही है तो मामला सीबीआई को दे दो। इस मामले में सारी गलती उत्तराखंड अधीनस्थ सेवा चयन आयोग की है। सरकार की है। सारा कसूर सरकार का है तो फिर ईमानदारी से परीक्षा पास करने वाले बच्चों को सजा क्यों?
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]