- कांग्रेस से हरदा, भाजपा से बंशीधर-चुफाल-सतपाल और यूकेडी से छह की दीवार
- हम भले ही अपने बुजुर्गों की नहीं मानें, लेकिन इन नेताओं में हमें खुदा नजर आता है।
देहरादून रेलवे स्टेशन के पास मुझे दिग्गज नेता हरीश रावत के दो बड़े होर्डिंग नजर आए। इनको लगाया राजीव जैन ने। ये जैन पिछले चार साल से लापता था, अचानक से प्रकट हो गया, क्योंकि इसे आभास है कि जनता मूर्ख है। नेता कमीशनखोर हैं तो वो भी अपनी भक्ति प्रकट कर उल्लू साध ले। हरदा के सीएम काल में इसकी खूब चलती थी। चुनाव नजदीक और संभावनाएं देख एक्टिव हो गया है। ये मात्र उदाहरण हैं।
इस प्रदेश की बदहाली के लिए ऐसे स्वार्थी लोगों से कहीं अधिक जनता ही दोषी है। हम घर में अपने बुजुर्ग दादा-दादी और मां-बाप की किसी बात पर भड़क उठते हैं। विद्रोह करते हैं, घर छोड़ने की धमकी देते हैं। सही-गलत बात का विरोध करते हैं, लेकिन राजनीति में हम बुढ्ढे और निकम्मे नेताओं के पिछलग्गू बन जाते हैं। कोई विरोध नहीं होता। हमें स्वार्थी, पदलोलुप नेताओं में खुदा नजर आता है। यह है अंधभक्ति।
कल का उदाहरण लो। 40 साल पुराने यूकेडी की आम सभा थी। 200 लोग भी नहीं थे। मंच पर बुढ्ढों का जमावड़ा था। घर में इनका खूब विरोध होता होगा, गालियां पड़ती होंगी लेकिन हम पहाड़ियों के संस्कार तो बाहर नजर आते हैं। मंच से दिवाकर भट्ट अपने कार्यकर्ताओं को धमका रहे थे कि चंदाखोर हो, चंदा लेना बंद करो। मैं अपने पैसों से पार्टी चला रहा हूं। काशी सिंह ऐरी ने कहा कि अब मैं चलाउंगा। अच्छी बात है तो हमने सर्वसम्मति से उनको अध्यक्ष चुन लिया।
इस बीच एक भी जिन्दा कार्यकर्ता नहीं निकला, जिसने कहा हो कि महिला अध्यक्ष प्रमिला रावत के अध्यक्ष पद की दावेदारी के आवेदन को क्यों नहीं लिया गया? सर्वसम्मति कहां से हो गयी? सभा में तो प्रस्ताव आया ही नहीं। या जब सब तय था तो आवेदन क्यों मांगे? प्रमिला भी चुप थीं। बताओ, कितना अनुशासन है हमारे यहां। घर में बहू के साथ सिर-फुटोव्वल हो जाएं तो एक बोल न फूटे इन नेताओं से। लेकिन मंच पर शेर की दहाड़ लगा रहे हैं। ये हैं हम पहाड़ियों के सार्वजनिक संस्कार। विरोध हमारे खून में बचा ही नहीं? जबकि लोकतंत्र की बुनियाद ही विरोध के स्वर है। सवाल पूछना है। न तो हम सवाल पूछते हैं और न विरोध के स्वरों में अपना स्वर मिलाते हैं।
भाजपा ने तो हमारी इज्जत ही लूट ली। 80 साल का बंशीघर भगत जैसा नेता कह रहा है कि हम एक सीएम बदले या दस। जनता को इससे क्या? हमने तब भी उनसे सवाल नहीं किया कि क्या राजनीति आपकी बपौती है? हमने सीएम-सीएम खेलने के लिए ये प्रचंड बहुमत दिया था कि आज तेरी बारी-कल मेरी बारी। चुफाल ने हमें नून पीसकर रोजगार देने की बात की। हम चुप रहे। कि बुढ़ापे में पेयजल में तबादलों और प्रमोशन का खेल चल रहा है। मोटी कमीशनखोरी हो रही है और हमें नून पीसकर रोजगार देने की बात कर रहे हो? त्रिवेंद्र के राज में लूट-खसोट से सलाहकार मालामाल होते रहे, हम चुप रहे। हम तब भी चुप रहे जब हमें तीरथ जैसे अज्ञानी नेता को हमारे सिर पर बिठा दिया गया। तो क्या सच स्वीकार लें कि हम पहाड़ी अपने घरों में ही शेर हैं, बाहर तो ढेर हैं।
कांग्रेस में हरदा की आज भी चल रही है। 75 साल की उम्र में भी हम उन्हें खुदा मान रहे हैं। अगले सीएम के रूप में देखने लगे हैं। जबकि अपने घर में जबकि पिता को 60 साल का होते ही बुढ्ढा सठिया गया। इसकी कौन सुने? सोचकर दूसरे कमरे में चले जाते हैं। क्या हम इतने ही ईमानदार और संस्कारवान अपने घरों में भी हैं। यदि हैं तो ठीक है, नहीं हैं तो सवाल पूछो कि आखिर इस युवा प्रदेश को बुढ्ढे नेता किस तरह से चला पाएंगे? रिटायर क्यों नहीं होते ये नेता? जब तक सवाल नहीं होंगे तब तक हमें हमारे हिस्से का पहाड़ और प्रदेश नहीं मिलेगा। इतना जरूर याद रखना कि श्रीदेव सुमन ने जिस शासक के उत्पीड़न का विरोध कर जनता के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी, उसी जनता ने आज भी अपने सिर पर उस वंश का ही शासक बिठाया हुआ है। पहाड़ियो, यदि यही नीयति रही तो तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]
मिस्टर दिवाकर भट्ट, मिस्टर ऐरी, आखिर ये आमसभा का ढोंग किसलिए?