- राज्य मिला भी तो क्या, जब हंसुली और दाथियों की बात ही नहीं सुनी गई
- पहाड़ के लिए देहरादून भी उतना ही दूर हो गया जितना लखनऊ
आज मसूरी के शहीद स्थल पर था। यहां का शहीद स्थल देहरादून के कचहरी स्थित शहीद स्थल की तुलना में अधिक अच्छा और साफ-सुथरा है। मसूरी गोलीकांड में शहीद हुए हंसा धनाई, बेलमती चौहान, धनपत सिंह, बलवीर नेगी, राय सिंह बंगारी, मदन सिंह ममगाईं की मूर्ति देख मन से हूक सी उठी कि इनकी शहादत से राज्य मिल भी गया तो क्या हासिल हुआ? आज भी पहाड़ के सुदूर गांव के अंतिम छोर पर खड़ा व्यक्ति देहरादून की ओर टकटकी लगाए देख रहा है कि वहां से विकास आएगा? 21 साल बीत गये। विकास नहीं आया। पहाड़ की अस्मिता का सवाल बरकरार है। वहां की समस्याएं बरकार है। और वहां की जवानी और पानी दोनों ही वहां के काम नहीं आ रहा। जिस हंसुली और दाथियों की बात सुनने की बात थी, मन में जो विकास की उत्कंठा थी, उसका आज भी समाधान नहीं हो पाया है। पहाड़ और पहाड़वाद आज भी हाशिये पर है। पहाड़ के लिए देहरादून भी उतना ही दूर है जितना पहले लखनऊ था। हालांकि अब टीस और बढ़ गयी है। पहले गैर थे, लेकिन अब अपने पहाड़ को लूट रहे हैं।
महिला से घास छीनने की हेलंग की घटना पहाड़ के लोगों को डराती है। पहले कलकत्ता के सेठों के हाथ जंगल बेचे जाते थे, अब हम खुद बेच रहे हैं। क्योंकि हमने पहाड़ से नाता तोड़ दिया। जब एक मुट्ठी घास पर भी हमारा हक नहीं है तो बताओ, इस उत्तराखंड में हमारा हक कहां है? यही सवाल तो राज्य गठन से भी पहले था। शहीद स्थल पर दो राज्य आंदोलनकारी केदार सिंह चौहान और सुरेंद्र डंगवाल मिले। अक्सर वो यहां आते हैं। जवानी की, आंदोलन की और उन सपनों की बातें करने, जो हमारे अपनों ने ही कुचल डाले। केदार कहते हैं, आंदोलन के मसूरी के पांच हजार से भी अधिक लोगों के खिलाफ मामले दर्ज हुए। उत्पीड़न हुआ, चिन्हीकरण महज 250 लोगों का हुआ। वह कहते हैं कि जब पहाड़ ही बेचना था तो इस राज्य को हासिल कर क्या मिला?
पहाड़ में अब कोदा-झंगोरा और कौंणी की बात नहीं हो रही है। वहां जमीन लीज पर दी जा रही हैं और पहाड़वासी अपने ही घर में निर्वासित सा जीवन जी रहे हैं। सुरेंद्र डंगवाल कहते हैं कि पहाड़ का विकास होगा कैसे, जब नीति नियंता पहाड़ को जानते ही नहीं, कोशिश ही नहीं करते। और जो सत्ता के केंद्र में हैं वह ठेकेदारों, चाटुकारों, माफियाओं और ब्यूरोक्रेसी के नेक्सस के बीच दब जाते हैं। ऐसे में पहाड़ गौण हो गया है। पलायन आयोग के उपाध्यक्ष पौड़ी स्थित कार्यालय में कितने दिन बैठे? गढ़वाल कमिश्नर कंडोलिया में कब-कब रहे? चीफ सेकेट्री कब किसी गांव में समस्याओं को सुनने के लिए पहुंचे?
केदार से पूछता हूं कि यदि गैरसैंण राजधानी होती तो क्या हालात बदलते? वह कहते हैं, हां। जब नौकरशाहों को धरातल नजर आएगा तो ही तो योजनाएं क्रियान्वित होंगी। सपने देखने के बाद हमने राज्य तो बना दिया, हम कश्ती तो भंवर से बचा लाए, लेकिन अब इसको मंजिल तक पहुंचाने के लिए नये प्रयासों की जरूरत है। सशक्त भू-कानून चाहिए। पहाड़ की राजधानी पहाड़ होनी चाहिए। राज्य आंदोलन पाठ्यक्रम में शामिल होना चाहिए।
सही बात है जनरल बीसी खंडूड़ी ने अपने पैतृक गांव मरगदना का नाम बदल कर राधावल्लभपुरम कर दिया, लेकिन क्या वहां के हालात बदले। जिस जनरल विपिन रावत की दुहाई देकर भाजपा दोबारा सत्ता की चौखट पर पहुंची, क्या उस जनरल के गांव जवाड़ी सैंण तक सड़क पहुंची। निशंक के गांव पिनानी के हालात बदले या त्रिवेंद्र के गांव खैरासैंण का सूरज चमका? सवाल हजारों हैं और उत्तर नदारद। बस, यही टीस बाकी है कि जो जनता राज्य के लिए सड़कों पर उतरी आज वह थक चुकी है, खामोश घरों में बैठी है और द पाइप्ड पीपर आफ हेमलिन की तरह सत्ता की बजाई बीन पर नाच रही है।
ये राज्य मिलकर भी नहीं मिला। नये उत्तराखंड के लिए नई शुरूआत की जरूरत है। जागो, पहाड़ियो।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]