- हर चुनाव से पहले होती है एका की कवायद, नतीजा ढाक के तीन पात
- भाजपा के बदलाव और कांग्रेस के पतली हालत का लाभ उठा सकेंगे क्षेत्रीय?
इन दिनों प्रदेश में भारी राजनीतिक उथल-पुथल है। भाजपा हाईकमान ने चार महीने में तीन सीएम दे दिये। कैबिनेट मंत्री बंशीधर भगत सच बोल रहे हैं कि एक बदलो, या दस सीएम, जनता को इससे क्या? वो जानते हैं जनता के पास विकल्प नहीं है। कांग्रेस विपक्ष के नेता पद को लेकर भी अटकी बैठी है, उसके पास नेता ही नहीं हैं। आम आदमी पार्टी घोड़े पर सवार होकर सत्ता के शीर्ष की ओर बढ़ रही है। कांग्रेस और बसपा का वोट बैंक उसकी ताकत है लेकिन यदि कोई खामोश है तो वह है क्षेत्रीय दल। एकता के प्रयास हो रहे हैं लेकिन देहरादून के होटलों में बैठकर। न इन दलों के नेता सड़कों पर हैं और न गांवों में।
मुस्लिम और न्यूट्रल वोट आप बटोरेगा, हिन्दू भाजपा, मिले-जुले कांग्रेस तो यूकेडी और क्षेत्रीय दल क्या बटोरेंगे? यदि क्षेत्रीय दल गांवों में गये होते तो आज उनका वोट बैंक होता। जो नेता एकता का प्रयास कर रहे हैं उन्हें यह बात समझ में नहीं आ रही है कि वोट कन्वर्ट करने के लिए मुद्दे और आधार चाहिए। कामन मिनिमन प्रोग्राम मार्च में ही सेट हो जाना चाहिए था। जब त्रिवेंद्र रावत हटे थे तब। अब तक जनता के बीच संदेश चले जाना चाहिए था कि भाजपा और कांग्रेस के हाथों में राज्य रहेगा तो प्रदेश का विकास अवरुद्ध रहेगा। क्षेत्रीय दल मजबूत विकल्प दे सकते हैं, लेकिन अफसोस, थके हारे और बूढ़े नेता कछुआ गति से इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। वैसे भी पिछले चार विधानसभा चुनाव में क्षेत्रीय दलों में एका के प्रयास होते हैं लेकिन ये मेढ़कों को तराजू में तोलने जैसा काम साबित होता है। एक को मनाओ तो दूसरा रूठ जाता है।
ये जो एका के प्रयास हो रहे हैं तो क्या देहरादून में होते रहेंगे? क्यों नहीं यह बात हल्द्वानी में होती, धारचुला में या उत्तरकाशी में। जो लोग एकता का प्रयास कर रहे हैं वो 50 रुपये लेकर घर से निकलते हैं और शाम को उसे लेकर वापस घर लौट आते हैं। कहने का अर्थ यह है कि आपके पास फंड तो है ही नहीं। जब चाय पिलाना भारी बात हो तो जनता के बीच 100 रुपये लीटर पेट्रोल खर्च कर कैसे पहुंचोगे जनाब?
दरअसल यूकेडी समेत सभी क्षेत्रीय दलों को यदि विकल्प बनना है तो फंड जुटाना होगा। जनता के बीच जाना होगा। अब समय कम है, तेजी से काम करना होगा। रणनीति के तहत 10-15 सीटों पर ही फोकस करना होगा। यूकेडी का ही झंडा रहेगा यह बात सही नहीं है। जो जहां से मजबूत होगा, उसे मिलकर समर्थन करें तो कुछ कामयाबी मिलेगी। जब तक जनता के बीच क्षेत्रीय दलों की मजबूती का संदेश नहीं जाएगा तब तक कोई इन दलों को चवन्नी भी नहीं देगा। अब जो नेता सोच रहे हैं कि दस बीस लाख में चुनाव लड़ लेंगे तो वो घर बैठ कर मोबाइल पर कैंडी क्र्रश खेल लें। संतुष्टि मिलेगी। विधायकी का चुनाव पांच से आठ करोड़ तक का होता है।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]