नौकरशाह-नेताओं के गठजोड़ से उत्तराखंड में सडांध

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  • भ्रष्ट नेताओं-नौकरशाहों की मौज, ईमानदारी कोने में सिसक रही
  • 24 साल में एक भी भ्रष्ट नेता को जेल नहीं

गैरसैंण से सभी विधायक किलकारियां मारते, हंसी ठिठोलियां करते दून लौटेंगे। हर विधायक को लगभग एक-एक लाख रुपये का लाभ हुआ है। 30 हजार तो महीने का भत्ता बढ़ गया। बता दूं प्रदेश के 15 लाख परिवारों की महीने की कुल कमाई 30 हजार से भी कम है। बेशक, महंगाई बढ़ी है तो विधायकों के खर्चे भी बढ़े होंगे। लेकिन विधायक जनता को हर महीने का रिपोर्ट कार्ड क्यों नहीं देते? दें न और बताएं कि उन्होंने महीने भर में किया क्या? यदि जनता के काम कर रहे हैं तो।
उत्तराखंड प्रदेश गठन के साथ ही नौकरशाही हावी रही है। इसका एक कारण यह है कि सत्ता में ऐसे लोग काबिज हो जाते हैं जिनमें अधिकांश चिरकुट नेता होते हैं। इन नेताओं का एकमात्र लक्ष्य होता है पैसे कमाना। उनकी कमजोर नस नौकरशाहों के पास होती है। ऐसा नहीं है कि नौकरशाह ईमानदार हैं। वो भी कमाते हैं लेकिन उनका तरीका दिमागी और यूनिक होता है। अधिकांश नौकरशाह बेस्ट ब्रेन होते हैं तो वो कागजी तौर पर मजबूत बन जाते हैं। नौकरशाह कॉमा, फुलस्टाफ, एक बचन, बहुबचन शब्दों पर खेल कर जाते हैं।
चूंकि नेताओं को कमीशन और अपने ठेकेदारों से मतलब होता है तो वह इन सब बातों पर नहीं जाते। प्रदेश में पिछले 24 वर्षों में 200 ऐसे बड़े घोटाले हुए हैं, जो प्रदेश के पांच साल के कुल बजट से भी अधिक हैं। यह पैसा सीधे-सीधे नेताओं, अफसर-इंजीनियरों की जेब में गया।
एनडी तिवारी के शासनकाल में पटवारी भर्ती घोटाले से लेकर, स्टर्डिया जमीन घोटाला, आपदा किट घोटाला, छात्रवृत्ति घोटाला, 2013 केदारनाथ आपदा घोटाला, विधानसभा में बैक डोर इंट्री, पेपरलीक घोटाला, सचिवालय दल रक्षक भर्ती, नगर निगम में मोहल्ला स्वच्छता समिति, सैन्य धाम समेत ऐसे घोटाले हैं जिन पर आजतक कोई बड़ा एक्शन नहीं हुआ है। राज्य गठन के बाद से लेकर आज तक किसी भी मामले में किसी भी सफेदपोश के कॉलर तक कानून के हाथ नहीं पहुंच पाए हैं।
पटवारी भर्ती घोटाले में कुछ अधिकारियों पर कार्रवाई तो हुई, लेकिन किसी भी नेता को इस मामले में कोई सजा नहीं हुई। साल 2002-03 में इंस्पेक्टर भर्ती घोटाला भी काफी चर्चाओं में रहा। 11 साल बाद 2014 में इस मामले में संलिप्त पाए गए अधिकारियों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गई। हालांकि, इस पूरे मामले में तत्कालीन डीजीपी पीडी रतूड़ी से कई स्तर की पूछताछ तो हुई। लेकिन, कोई भी अधिकारी सलाखों के पीछे नहीं पहुंचा।
खंडूड़ी के कार्यकाल में ढैंचा बीज प्रकरण सामने आया। जांच रिपोर्ट आज तक नहीं आई। 2010 में निशंक के शासनकाल में चर्चाओं में स्टर्डिया जमीन घोटाले और जलविद्युत परियोजनाओं के आवंटन का मामला सामने आया। कोर्ट ने उन्हें राहत दे दी। त्रिपाठी आयोग को निरस्त कर दिया गया। मामला सिफर।
2013 में केदारनाथ आपदा पुनर्निर्माण कार्यों में स्कूटर की डिग्गी में पेट्रोल कैसे भरा गया आज तक पता नहीं चला। कुछ अफसर जेल गए पर नेता बच गए। दो आईएएस दिखावे के लिए निलंबित भी कर दिए लेकिन कुछ दिन बाद ही बहाल कर दिया गया। 2016 में हरीश रावत सरकार में ही छात्रवृत्ति घोटाला हुआ। क्या हुआ? आरोपी के परिजन और अधिक मतों से चुनाव जीत गए। उत्तराखंड भवन एवं सन्निर्माण कर्मकार कल्याण बोर्ड के साइकिल प्रकरण में क्या कुछ कार्रवाई हुई?
नैनीताल हाईकोर्ट में सच्चिदानंद डबराल ने एक जनहित याचिका दायर की थी। जिसमें कहा गया था कि साल 2010 में हरिद्वार में तत्कालीन विधायक मदन कौशिक ने विधायक निधि से डेढ़ करोड़ की लागत से 16 पुस्तकालय बनाने के लिए पैसा आवंटित किया। पुस्तकालय बनाने के लिए भूमि पूजन से लेकर उद्घाटन और फाइनल पेमेंट तक हो गई, लेकिन आज तक धरातल पर किसी भी पुस्तकालय का निर्माण नहीं हुआ। क्या वो पुस्तकालय अब बन गए होंगे?
हरिद्वार में हुए कुंभ के दौरान कोरोना टेस्टिंग घोटाला भी खूब चर्चाओं में रहा। दो आरोपी पकड़े गये पर सफेदपोश बच गए। विधानसभा भर्ती मामले में भी आरएसएस से लेकर बीजेपी और कांग्रेस के नेताओं के नाम आए। भर्तियां निरस्त हो गई इसके बावजूद प्रेमचंद अग्रवाल और गोविंद सिंह कुंजवाल बेदाग हैं।
भ्रष्ट नेताओं और नौकरशाहों के गठजोड़ से प्रदेश में भारी सडांध आ रही है। यही कारण है कि कई अच्छे नौकरशाह इस घुटन भरे माहौल से डेपुटेशन पर दिल्ली या कहीं और चले गए तो जो कुछ बचे हुए हैं वह कोने में पड़े सिसक रहे हैं। और हम बांग्लादेश के हालातों पर मंथन और प्रदर्शन करते हुए अधमरे हुए जा रहे हैं।
(वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार)

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