- दो महीने से आधा वेतन भी नहीं मिला
- सहारा को विज्ञापन देना बंद करे उत्तराखंड सरकार
राष्ट्रीय सहारा और सहारा समय के ईमानदार पत्रकार भुखमरी के कगार पर है। जानकारी के अनुसार उन्हें अक्टूबर माह से वेतन नहीं मिला। यहां कार्यरत बेईमान पत्रकार तो पहले से ही मौज में हैं। ईमानदार पत्रकारों के पास संकट यह है कि बाजार में इन्हें नौकरी देने के लिए भी कोई तैयार नहीं है। दूसरे, ये उम्र के इस पड़ाव पर हैं कि बाजार में आउटडेडिट हो गए हैं। इस कारण इनका जीवन संघर्ष और बढ़ गया है।
सहारा में 2014 से ही कर्मचारियों के लिए सेलरी संकट है। हां, प्रबंधन के किसी भी अधिकारी के बेटा-बेटी की शादी हो। या कोई मर गया हो तो उसका स्टेच्यू बनाने के लिए इनके पास फंड की कोई कमी नहीं है। लेकिन जब कोई कर्मचारी अपना हिसाब भी मांग ले तो प्रबंधन की नानी मर जाती है। सहारा में पहले से ही कुछ प्रतिशत वेतन मिल रहा है। पूरा वेतन तो 10 साल से मिला ही नहीं। सब बैकलॉग है। जिसने नौकरी छोड़ी या रिटायर हुआ, उसका पूरा हिसाब भी आज तक नहीं मिला। हां, प्रबंधन के अधिकारी अपने चहेतों को ही वेतन दे रहे हैं।
मैं बता दूं उत्तराखंड में राष्ट्रीय सहारा 5 हजार कापी भी नहीं बिक रही। देहरादून में महज 600 कापी बिक रही हैं। इसके बावजूद सहारा को सूचना विभाग हर महीने 30 से 35 लाख का विज्ञापन देता है। किसलिए? जब ये अखबार यहां के कर्मचारियों को वेतन ही नहीं दे रहा तो सूचना विभाग झूठे एबीसी सर्टिफिकेट के आधार पर तीन से चार करोड़ रुपये सहारा पर खर्च क्यों कर रहा है? एबीसी को लेेकर हर अखबार झूठ बोलता है, लेकिन सहारा का झूठ नहीं महाझूठ है।
मैं उत्तराखंड सरकार को स्पष्ट कह रहा हूं कि सहारा को हर महीने इतना विज्ञापन देना बंद करें। यह जनता का पैसा है, इसकी बर्बादी रोके। यहां के कर्मचारियों को वेतन भी नहीं मिल रहा और अफसर मौज काट रहे है। संपादक और प्रबंधक रद्दी और कबाड़ बेचकर या टूर के नाम पर वसूली कर लेते हैं। वहीं, सहारा समय तो कहीं नजर आता नहीं, तो चैनल के बचे-खुचे स्टाफ को देवदासी की तर्ज पर प्रिंटिंग प्रेस के एक कोने में बिठा दिया गया है कि बाहर मत निकलना, न किसी के आगे अपना दुखड़ा रोना।
(वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार)
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