- भारतीय पत्रकारिता के जेम्सबांड थे हरीश चंदोला जी
- एक श्रद्धांजलि सभा तो होनी चाहिए थी
पत्रकारिता के जेम्सबांड हरीश चंदोला के निधन हुए पखवाड़ा हो चला है। उत्तराखंड में गहन चुप्पी है। हम कितने स्वार्थी और सीमित हो गये हैं कि हम अपने दिग्गजों का आदर सम्मान करना भूल गये। हरीश चंदोला आधुनिक भारत के पत्रकारिता के एक मजबूत स्तंभ थे। उन्होंने उस दौर में विश्व के कई युद्धों की रिपोर्टिंग की, जब सूचना और तकनीक इतनी समृद्ध नहीं थी। ग्राउंड रिपोर्टिंग में कई बार जान खतरे में भी पड़ी होगी। सबसे अहम बात यह है कि उनकी साख इतनी अच्छी थी कि प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लेकर प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी तक उनकी कद्र करते थे।
1980 में जब इंदिरा दोबारा सत्ता में आई और हेमवती नंदन बहुगुणा को कैबिनेट में नहीं लिया तो वह बहुगुणा की ओर से लेटर हरीश चंदोला ही लिखते रहे। इंदिरा गांधी ने इसके लिए उन्हें डांटा भी। वह चाहती थी कि बहुगुणा कांग्रेस संभाले जबकि बहुगुणा उप प्रधानमंत्री बनना चाहते थे। उनकी चरवाहे के रूप में चीन के तिब्बत की ओर से भारत बढ़ने की रिपोर्ट रही या वियतनाम युद्ध में भूमिका। तोप के बरसते गोलों के बीच यासर अराफात को पीएम राजीव गांधी द्वारा भेजी गयी नकद सहायता को भी उन्होंने ही पहुंचाया था। उन्होंने ईरान-इराक युद्ध, कुवैत पर ईराकी हमला, फ्रांस-अल्जीरिया संघर्ष, और नागा शांति समझौते में भी अहम भूमिका अदा की।
ऐसे वरिष्ठ पत्रकार के चले जाने पर यहां के पत्रकार जगत में सन्नाटा सा है। किसी ने उन्हें श्रद्धांजलि देने की औपचारिकता भी नहीं की, जबकि उनके कार्यों और पत्रकारिता में दिये गये योगदान पर मंथन होना चाहिए था। दिल्ली प्रेस क्लब में उनको श्रद्धांजलि दी तो अच्छा लगा लेकिन उत्तराखंड के पत्रकार संगठनों की चुप्पी खलती है। पत्रकारिता के जेम्सबांड हरीश चंदोला जी को विनम्र श्रद्धांजलि।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]