मौका है जवाब दो, शहीद क्यों नहीं बनते चुनावी मुद्दा?

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file photo source: social media

– जम्मू-कश्मीर में अब तक शहीद हो चुके हैं आठ हजार जवान
– कुन्नूर हादसे के लिए रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने नैतिकता के आधार पर क्यों नहीं दिया त्यागपत्र?
– सैनिकों की शहादत के लिए रक्षा सचिव और रक्षा मंत्री की जिम्मेदारी तय हो।

उत्तराखंड में 2022 विधानसभा चुनाव है। यहां के सात लाख फौजी परिवारों के वोटों पर भाजपा-कांग्रेस की नजर है। आज रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह यहां आए और खूब चीखे कि दुश्मन नजर उठा कर नहीं देख सकता। कल राहुल गांधी भी यही ड्रामा करेंगे। हर महीने उत्तराखंड का कोई न कोई लाल तिरंगे में लिपटा आता है। हम उसकी जय-जयकार करते हैं। कोई कैंडल भी जला देता है और फिर इंतजार करते हैं किसी और नये शहीद का।
यह शहादत भी कहां हो रही है, किसी बार्डर पर नहीं। जम्मू-कश्मीर में। 1984 से अब तक जम्मू-कश्मीर में हम 8 हजार से अधिक शहादत दे चुके हैं। यानी 16 करगिल युद्ध के बराबर हमें नुकसान हो चुका है। विधानसभा और लोकसभा चुनाव होते हैं। फौजी परिवारों को ठगा जाता है। वादे पर वादे किये जाते हैं लेकिन जवानों को अच्छी तकनीक के हथियार या सुरक्षा उपकरण मसलन हेड गार्ड, नीक गार्ड, अच्छी नाइलोन की बुलेट प्रुफ जैकेट, स्नाइपर लोकेशन आर्गनाइजर, जैमर आदि। न ही शहीदों की मौत का कोई आडिट होता है कि गोली कहां लगी और मौत कैसे हुई?
फौजी के वोट तो सब हथिया लेते हैं लेकिन उनकी समस्या कभी मुद्दा नहीं बनती। कारण, यह मान लिया जाता है कि सेना का जवान तो गोली ही खाएगा। बचकर आ गया तो किस्मत, जान चली गयी तो शहीद। न रक्षा सचिव न रक्षा मंत्री किसी भी घटना के लिए जिम्मेदार होता है। कुन्नर हादसे में सीडीएस जनरल विपिन रावत समेत 14 शहादतें हो गयी। बड़े-बड़े श्रद्धांजलि समारोह हुए, लेकिन न तो रक्षा सचिव ने नैतिकता से इस्तीफा दिया और न ही रक्षा मंत्री ने। क्या ये है शहीदों के लिए श्रद्धांजलि। ऐसा ढोंग क्यों? कहा जाता है कि शास्त्री जी जब देश के रेल मंत्री थे और अरियालूर रेल हादसा हो गया तो उन्होंने नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे दिया था। क्या नेता इनसे सबक लेंगे? फौजी सिविल लाइफ में आने के बावजूद सिविलयन की चालाकी को समझ नहीं पाते और इनके जाल में फंस जाते हैं। सैनिकों की सुरक्षा को चुनावी मुद्दा बनना चाहिए। तभी ये सैन्य धाम और शहीदों के परिजनों का सम्मान के कोई मायने होंगे?
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

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