पहाड़ को चाहिए एक और गौरा देवी और सुंदरलाल बहुगुणा

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  • प्रकृति बचेगी तो ही संस्कृति और भाषा भी बचेगी
  • मर रही हैं पहाड़ की भाषाएं, भाषा मरती है तो जैव विविधता और संस्कृति भी मर जाती है।

हरेला पर्व राजकीय पर्व है। हरेला माह में सरकार चार लाख और बहुत से सामाजिक संगठन संभवतः हजारों पेड़ लगाते हैं, लेकिन इसकी तुलना में लाखों पेड़ विकास के नाम पर काट दिये जाते हें। ये जो पेड़ सरकार और सामाजिक संगठन लगाते हैं, उनमें से 90 फीसदी पेड़ देखभाल की कमी के कारण मर जाते हैं। रिस्पना रिवाइवल के नाम पर लाखों पेड़ लगाए गये लेकिन आज वहां अधिकांश पेड़ तो नहीं बचे लेकिन गड्ढे जरूर हैं। हरेला पर्व पूरी तरह से शहरी चमक-दमक का पर्व बनकर रह गया है।
हरेला पर्व को गांवों से जोड़ने की जरूरत है। समाजशास्त्रियों और वैज्ञानिकों का मानना है कि भाषाओं और जैव विविधता को अलग-अलग नहीं देखा जा सकता है। जब भाषा पर खतरा मंडराता है तो जैव विविधता भी खतरे में पड़ जाती है। मनुष्य अपने अस्तित्व के लिए जैव विविधता और पारिस्थितकीय तंत्र पर निर्भर है। भाषा विज्ञानी मानते हैं कि कोई भी भाषा अकेले नहीं मरती, उनके साथ पूरी संस्कृति और उससे जुड़ा ज्ञान मर जाता है। मसलन, अब पहाड़ की शादियों में मांगल गीत, वर पक्ष को दी जाने वाली गालियां और पंदेरा भेंट जैसी संस्कृति धीरे-धीरे समाप्त हो रही है। यूनेस्को के मुताबिक भोटिया यानी जाड़ भाषा विलुप्त होने के कगार पर है तो गंढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसार भाषाएं भारत की उन 197 भाषाओं में शामिल हैं, जो कि खतरे में हैं। भोटिया की तरह उत्तराखंड के रंगेलो समुदाय की भाषा रंग भी विलुप्त हो चुकी है।
अब ग्रामीणों का जंगलों से नाता नहीं रहा तो वनाग्नि की घटनाएं बढ़ गयी। मानवीय हस्तक्षेप हो रहा है तो केदारनाथ और ऋषिगंगा जैसी आपदाएं आ रही हैं। ऐतिहासिक गौरा देवी का गांव रैणी खतरे में है। पलायन के साथ ही भाषाओं पर खतरा बढ़ा है और जैव विविधता पर भी। पहाड़ में प्रकृति को समझे बिना शीशे के महल बनाए जा रहे हैं। बेतरतीब ढ़ेग से पहाड़ काटे जा रहे हैं और मलबा नदियों में दफन हो रहा है। उत्तरी ढलानों पर बसे गांव अतिवृष्टि के शिकार हो रहे हैं। जोशीमठ का 20 किलोमीटर का इलाका केदारनाथ जैसी आपदा को बुला रहा है। इसके बावजूद सरकारों को पहाड़, हिमालय और जैव विविधता की कोई चिन्ता नहीं है। विकास के नाम पर संस्कृति और प्रकृति दोनों खतरे में हैं। आज हमें एक और गौरा देवी और सुंदरलाल बहुगुणा की जरूरत है।
हमें यदि हिमालय बचाना है, पहाड़ बचाने हैं, पर्यावरण बचाना है तो विज्ञान को समझना होगा। भाषाओं का संरक्षण देना होगा। भाषाओं को जीवित रखने पर ही संस्कृति और प्रकृति बचेंगी तो आओ इस हरेला पर संकल्प लें कि हिमालय के साथ अधिक मानवीय छेड़छाड़ को बर्दाश्त नहीं करेंगे। संस्कृति और प्रकृति को बचाने के लिए एकजुट होंगे। हरेला पर्व की सार्थकता तभी है।
सभी प्रदेशवासियों को हरेला पर्व की शुभकामनाएं।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

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