ईमानदारी और मेहनत की पहचान दिलाती है साइकिल
आज आफिस से घर लौटते समय आढ़त बाजार से सहारनपुर चौक तक जाम की स्थिति थी। यूं तो यहां रोज ही जाम लगता है, लेकिन आज कुछ ज्यादा ही था। मेरे आगे एक व्यक्ति साइकिल के पैडल पर जोर मारता। स्कूटर- बाइक उसके पास से तेजी से गुजरते तो उसके कदम जमीन को छू जाते। मैं कछुआ गति से कार चलाते हुए उस साइकिल सवार के साथ ही आगे बढ़ रहा था। मुझे उस साइकिल सवार से सहानुभूति हो रही थी।
सहसा मुझे अपने दादाजी याद आ गये। दिल्ली में रहते हुए चाणक्यापुरी से सरोजनी नगर तक वह मुझे अक्सर स्कूल छोड़ने या लाने के लिए साइकिल से आते-जाते थे। साइकिल के करिएर पर बिठाते और कोई फल खाने को देते। मैं दादाजी की साइकिल पर पीछे बैठा खूब इतराता। मैं छोटा था, साइकिल का बड़ा शौक था। दादाजी जब आफिस होते तो मैं उनकी साइकिल को लेकर लॉन में निकलता। साइकिल की सीट ऊंची होती, मैं डंडे पर चढ़कर सीट तक नहीं बैठ सकता था, इसलिए साइकिल को करंची चलाता। यानी साइकिल के डंडे के बीच में पैर रखकर आधा-आधा पैडल। खूब खुश होता। लगता दुनिया जहां की खुशियां मिल गयीं। कोई अन्य चाहत ही नहीं होती।
मैं साइकिल की उसी मीठी याद में खोया था कि भीड़ में बजे हॉर्न से ध्यान भंग हुआ। जाम खुल चुका था। सहसा, मुझे आभास हुआ कि साइकिल खतरनाक है। मोदी जी ने कहा, गुजरात में हुए बम विस्फोट में साइकिल का प्रयोग किया गया था। साइकिल और साइकिल सवार को लेकर मेरी भाव-भंगिमाएं बदलने लगी। मेरा सीधा पैर रेस पर दबाव बढ़ाता चला गया। मैंने साइकिल से कार की उचित दूरी बना ली।
कोरोना के दौरान ज्योति कुमारी अपने पिता को गुड़गांव से दरभंगा तक 1200 किलोमीटर साइकिल पर ले गयी। भले ही साइकिल सपा का चुनाव चिन्ह है और हमारे देश के प्रधानमंत्री के अनुसार साइकिल खतरनाक है, लेकिन मेरा कहना है, साइकिल सपनों सी सुंदर है। साइकिल इस देश के हर मेहनती और ईमानदार व्यक्ति की मेहनत और पसीने की पहचान है, बम की नहीं।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]