यदि तुम अब भी नहीं जागे, तो अच्छा है तुम मर जाओ!

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  • ऋषिगंगा या केदारनाथ आपदा नेताओं के लिए अवसर है
  • तुम्हारे वोट ही नहीं, मरने पर भी माल कमाते हैं ये लोग, जागो!

पिछले साल एक दिन पूर्व यानी सात फरवरी को ऋषिगंगा में जलप्रलय आयी और 206 लोगों की जिंदगी लील गयी। हमारी याददाश्त इतनी कमजोर हो गयी है कि जब तक हम पर या हमारे परिजन पर कोई संकट नहीं आता, हम किसी का दर्द समझने की कोशिश नहीं करते। स्वार्थी हो गये हैं, संवेदनहीन। मैंने पूरे एक दिन इंतजार किया। कोई नेता या कोई पदम पुरस्कार पाने वाला पर्यावरणविद दो शब्द बोल देता कि हे, दुष्ट मानवो, अपने घर नोटों से भरने के लिए पहाड़ों से मत खेलो।
मंदाकिनी हो गई ऋषिगंगा। गंगा में मिलकर ही हरिद्धार पहुंचती है। हरिद्वार में कल राजनीति की तीन विभूतियां थी। तीनों के मुख से एक भी शब्द आपदा का नहीं फूटा। क्योंकि आपदा चुनाव का मुद्दा नहीं है। मंदिर मस्जिद है। हिन्दु-मुसलमान है। मानव और मानवता मुद्दा नहीं है।
उत्तराखंड को विकास के नये आयाम पर पहुंचाने का दावा करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कल हरिद्वार में वर्चुअल रैली थी। उनके टेलीप्रोम्पटर पर किसी ने एक शब्द नहीं लिखा। आपदा में मारे गये लोगों को श्रद्धांजलि। उत्तराखंडियत और उत्तराखंड स्वाभिमान की बात करने वाले हरीश रावत भी कल हरिद्वार में थे, वो सड़क किनारे चाट के ठेले पर टिक्की तलते रहे, लेकिन उनकी जुबान से भी एक शब्द आपदा पर नहीं फूटा। दिल्ली का विकास मॉडल उत्तराखंड में लाने का दावा कर रहे अरविंद केजरीवाल को कौन से पहाड़ की समझ है कि वह दिल्ली मॉडल हमारे पहाड़ पर अजमाना चाहते हैं। जबकि सच यह है कि हम वनों और पर्यावरण की रक्षा करते हैं ताकि दिल्ली सांस ले सकें। दिल्ली वाले जिंदा रह सकें। दिल्ली को हवा और पानी हम देते हैं, लेकिन हमारी सरकारों का रिमोट दिल्ली में होता है।
पहाड़ियो, कभी सोचा है कि आपदा या हिमालय को ये नेता या राजनीतिक दल चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनाते? क्योंकि इनसे इनकी झोली भरती है। सरकार किसी की भी आएं, सब हमारे जल, जंगल और जमीन बेचना चाहते हैं। हमें यूं ही प्रकृति की मार के लिए छोड़ देते हैं ताकि आपदा आएं, बाढ़ आए, भूस्खलन हो, बादल फटे और आपदा में भी ये अवसर तलाश सके।
इसलिए जरूरी यह है कि साफ छवि और अच्छी नीयत वाले उम्मीदवार को ही वोट दें। भले ही वो किसी भी दल या निर्दलीय हो। यदि अभी से नहीं संभले तो भावी पीढ़ियां बचेंगी ही नहीं। यदि हमारी जैव-विविधता मर जाएगी तो हमारी सभ्यता और पहचान भी मर जाएगी। संभलो और जागो। यदि नहीं जागे तो तुम्हारा मर जाना ही अच्छा है।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

कोई लुटियन का बंगला न मांगे हमारे प्यारे निशंक से!

 

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