उत्तराखंड के कलंक हैं यशपाल और हरक जैसे नेता!

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  • दोष किसको दें, अपनी जनता ही निकली …….!
  • व्यर्थ जा रहा यशोधर और हंसा धनाई का बलिदान

हल्द्वानी के हवलदार कुंदन की शहादत पर मां का उसकी प्रतिमा से लिपट कर यूं रो देना किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को भावुक कर देता है। यह फोटो दिल को छू जाती है। कुंदन ने देश के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया। इसी तरह से उत्तराखंड राज्य के लिए अनेको लोगों ने सर्वोच्च बलिदान दिया। अस्मत गंवाई। करियर चौपट किया। यूकेडी के सदस्य यशोधर बेंजवाल और राजेश रावत को पुलिस ने श्रीयंत्र टापू में मार डाला। मसूरी में हंसा धनाई और बेलमती चौहान समेत छह को पुलिस ने गोलियों से छलनी कर डाला। मुजफ्फरनगर कांड को हम कैसे भूल सकते हैं कि वहां क्या हुआ?
इतने त्याग और बलिदान के बाद मिले राज्य हमने कैसे लोगों के हाथों में सौंप दिया। भ्रष्ट, मौकापरस्त, व्याभिचारी, माफिया और खुदगर्ज लोगों को। जिस राज्य के लिए गांव-गांव, धार-धार, पगडंडियों से दिल्ली की सड़कों को अपने पैरों से नापने वाली जनता राज्य मिलने के बाद ………. निकली। कोई चंद सिक्कों में बिका, कोई दारू में कोई मुर्गे में तो कोई पार्टी कैडर के नाम पर तो कोई यूं ही बिक गया और फिर खरीददारों ने पूरा पहाड़ खरीद लिया।
हम वो अभागे पहाड़ी हैं जिन्हें अपनों ने ही लूट लिया। हम सरे बाजार भिखमंगे और नंगे हो गये। यशपाल आर्य और हरक सिंह रावत जैसे 30-40 नेताओं के पास जितनी दौलत है, उतनी दौलत प्रदेश के 90 प्रतिशत जनता की कुल संपत्ति भी नहीं है। ये मौका परस्त आए और दोनों हाथों से हमारे जल, जंगल और जमीन लूटते रहे। इन भस्मासुरों को हम ठगे देखते रहे लेकिन हम कुछ नहीं कर सके। ये छापामार लुटेरों की तरह दल और सीटें बदलते रहे और कमीनी जनता चवन्नी में बिकती रही। नतीजा, महज 20 साल में ही हमारा अस्तित्व संकट में है। पहाड़ मंकीलैंड बन गया है और मैदानों में हम किराएदार और नौकर बनकर रह गये हैं।
न नौकरी, न रोजगार, न अच्छी शिक्षा और न अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं। विकास के लिए बनी सड़कों से इन नेताओं ने शराब और नशा गांव-गांव तक पहुंचा दिया। ये नेता हमारा ही नहीं हमारे बच्चों का हक भी मार रहे हैं। गरीबों के बच्चों की छात्रवृत्ति तक खा रहे हैं। हमारे बच्चे दर-दर भटक रहे हैं और इनके बच्चे और बहुएं हमारे सिर पर नाचने की तैयारी में हैं।
याद रखो, जब तक हम अपने कंधे और सिर इन नेताओं के आगे झुकाते रहेंगे, हम पनपेंगे नहीं और इन कलंकों को ढोने के लिए विवश हो जाएंगे। हमारी नस्ल, संस्कृति और सभ्यता सब खतरे में है। इस बार भी नहीं संभले तो फिर न कहना कि कहा नहीं। बर्बाद हो जाओगे पहाड़ियो। नेताओं की गंदी नस्लों को पहचानो। वोट बेचना नहीं, सोच-समझकर देना।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

ओह त्रिवेंद्र चचा, क्या गजब करते हो जी! चुनाव से डरते हो जी!

 

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