पहाड़ के मुद्दों पर चुप्पी साध जाते हैं पदाधिकारी
रोशन धस्माना क्यों चिपके रहना चाहते हैं कुर्सी पर?
पहाड़ बर्बाद हो रहे हैं। विकास के नाम पर हजारों पेड़ काटे जा रहे हैं। पहाड़ों को बमों से उड़ाया जा रहा है। पहाड़ आपदा के घर बन गये हैं। इस बीच सरकार ने भू-कानून में बदलाव कर पहाड़ की जमीन को बेचने का षडयंत्र किया है। देवस्थानम बोर्ड बना दिया। गढ़वाल के जिलों को तोड़कर तीसरी कमिश्नरी भी घोषित कर दी। पिछले 21 साल में सरकारों ने कभी गढ़वाल भाषा को पाठयक्रम का हिस्सा नहीं बनाया। कोरोना काल में लाखों प्रवासी गांव लौटे और फिर वापस मैदानों की ओर लौट गये।
पहाड़ों को लेकर ऐसे अनगिनत सवाल हैं जो सत्ता से पूछे जाने चाहिए थे। लेकिन अखिल गढ़वाल सभा चुप रही। ऐसी संस्था क्या लोकनृत्य कर ही संस्कृति बचा लेगी। ऐसी सभा का अचार डालना है क्या? देहरादून में गढ़वाल सभा से कहीं अधिक मजबूत बिहारी महासभा है। अब अखिल गढ़वाल सभा के चुनाव 12 दिसम्बर को होने हैं। चुनाव होते हैं लेकिन हर बार रोशन धस्माना चुनाव जीत जाते हैं। लाख टके का सवाल यह है कि रोशन धस्माना देहरादून के हरबंस कपूर क्यों बनना चाहते हैं? आखिर क्या है इस कुर्सी में कि जिसे वो छोड़ना ही नहीं चाहते? क्या रोशन धस्माना भी राज्यमंत्री बनना चाहते हैं? क्या उन्हें भी पदमश्री चाहिए? आखिर वो पहाड़ के हित के मुद्दों पर भी क्यों खामोश रहते हैं? क्यों गढ़वाल सभा आज भी अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो सकी है। गढ़वाल सभा की पिछले 20 साल में एक भवन के अलावा क्या उपलब्धि रही? यह बड़ा सवाल है। गढ़वाल सभा की उपलब्धियों पर एक श्वेत पत्र जैसी रिपोर्ट मांगी जा सकती है।
मैं जानता हूं एक बार फिर रोशन धस्माना ही जीत जाएंगे। लेकिन वो जिम्मेदार कब बनेंगे, यह बड़ा सवाल है। गढ़वाल सभा विजय धस्माना का पल्लू पकड़ कर कब तक चलेगी? टाउन हाल में विजय धस्माना ने सार्वजनिक मंच से गढ़वाल सभा को भिखारी कह दिया था कि जब देखो, मेरे आगे हाथ पसारते हैं। आखिर चंदे से संस्था कब तक चलेंगी? यदि ऐसी सभा हमारी लोकसंस्कृति, जैव विविधता, पलायन, पाठ्यक्रम, भाषा उन्नयन और पहाड़ों को बचाने की बात नहीं करती तो गढ़वाल सभा को मृत घोषित कर देना चाहिए। इसे दुकान की तरह किसी भी हाल में नहीं चलाया जाना चाहिए।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]