- विंरची दास के बुधिया और विनोद कापड़ी की खोज प्रदीप को क्या मिलेगी मंजिल?
- क्यों गुमनामी के अंधेरों में खो गया बुधिया? कहां है वो?
पिछले दो दिनों से सोशल मीडिया में वरिष्ठ पत्रकार और फिल्म निर्माता विनोद कापड़ी की खोज 19 साल का प्रदीप मेहरा जबरदस्त चर्चा बटोर रहा है। कुमाऊं के इस बच्चे को अपने पेट भरने और सपने को साकार करने के लिए पलायन करना पड़ा। प्रदीप को दौड़ता देख मुझे सहसा बुधिया सिंह की याद हो आई। याद है न वर्ष 2006। 4 साल का वह छोटा सा बच्चा जो पापी पेट के लिए बिना रुके भुवनेश्वर में 65 किलोमीटर की मैराथन दौड़ा। तब उसने भी खूब सुर्खियां बटोरी। मीडिया में छाया रहा। उसकी मदद के लिए सैकड़ों ने दावा किया। उस पर दुरंतो फिल्म भी बनी। फिर एकाएक बुधिया सुर्खियों से गायब हो गया। उसके कोच विंरची दास की हत्या हो गयी और वह गुमनामी में जीने लगा। उसका ओलंपिक पदक जीतने का सपना अभी अधूरा है। 20 साल का हो गया होगा, पता नहीं कहां है?
उस समय मैं अमर उजाला दिल्ली एडिशन में था और मैंने और मेरे वरिष्ठ साथी मलिक असगर हाशमी ने बुधिया पर मिडिल लिखा था। लगभग चार-पांच साल पहले की बात है। बुधिया की मां सुकांती ने कहा कि किसी ने उनकी मदद नही की।
बुधिया सिंह पापी पेट के लिए दौड़ा। प्रदीप मेहरा की कहानी भी यही है। वह आधी रात को यदि नोएडा की सड़कों पर दौड़ रहा है तो इसमें भूख और पेट का गहरा संबंध है। उसे अपना और अपनी बीमार मां के इलाज के लिए नौकरी भी करनी है और सेना में जाने की तैयारी भी। उसका जज्बा और अथक मेहनत निश्चित ही रंग लाएगी। लेकिन हमें यह भी तय करना होगा कि आखिर प्रदीप आधी रात को क्यों दौड़ रहा है। पिछले 21 साल में हमारी सरकारों ने उसे और उस जैसे लाखों युवाओं को क्या दिया? यदि प्रदीप को विनोद कापड़ी जैसे दिग्गज पत्रकार नहीं मिलते तो क्या उसकी मेहनत की यूं कद्र होती? मुझे समझ में नहीं आता कि प्रदीप की इस उपलब्धि पर हम गर्व करें या अपनी सरकारों की नाकामी पर शर्म महसूस करें।
यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि हमारे देश के लोगों में भूलने की गजब की शक्ति है। सब ताजा रहता है। देखिए न कोरोना में लाखों लोग मर गये, एक साल में हम भूल गये। उत्तराखंड में 7500 लोग मर गये, हम भूल गये। इलाज नहीं मिला, खून नहीं मिला, आक्सीजन नहीं मिला। हम भूल गये। साढ़े तीन लाख से भी अधिक प्रवासी नंगे पैर, भूखे पेट गांव लौटे। फिर वापस मैदानों की ओर चले गये। हम भूल गये। हमारी याददाश्त बहुत कमजोर है। हमें केवल मुफ्त में मिला पांच किलो अनाज याद रहा। क्योंकि अनाज से पेट भरता है। सरकारों ने हमें पेट से आगे सोचने का मौका ही नहीं दिया। इसलिए बुधिया सिंह और प्रदीप मेहरा को यूं दौड़ना पड़ रहा है पेट के लिए।
मेरा कहना है कि हमारे वरिष्ठ पत्रकार और उससे भी अच्छी बात यह है कि वो एक बेहतरीन नागरिक हैं, विनोद कापड़ी की खोज प्रदीप को यूं न भूल जाना। कर्नल अजय कोठियाल ने उसे यूथ फाउंडेशन में फौज में जाने का प्रशिक्षण देने का वादा किया है। यह सराहनीय है। कुछ सक्षम लोग उसके परिवार का खर्च भी उठा लें। सेना में भर्ती हो गया तो प्रदीप की जिंदगी बदल जाएगी। उम्मीद है कि बुधिया की तर्ज पर प्रदीप गुमनाम नहीं होगा। और मदद के लिए बढ़े हाथ बीच में नहीं रुकेंगे।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]
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