‘प्रगतिशील आंदोलन की ताक़त मज़दूरों के संघर्ष में छिपी थी’

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मुंबई, 15 जनवरी। मुंबई विश्वविद्यालय में एक महत्त्वपूर्ण वैचारिक परिचर्चा का आयोजन किया गया। परिचर्चा का विषय ‘प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन और मुंबई’ था। जनवादी लेखक संघ (महाराष्ट्र) और शोधावरी के संयुक्त आयोजन में आयोजित इस परिचर्चा का संदर्भ लेखक-पत्रकार ज़ाहिद खान द्वारा हाल ही में उर्दू ज़बान से हिंदी में लिप्यंतरित किताब ‘रुदाद-ए-अंजुमन’ थी। कार्यक्रम में इस किताब के अलावा ज़ाहिद खान की एक दूसरी किताब ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक के हमसफ़र’ के उर्दू एडिशन का विमोचन भी कार्यक्रम में शामिल मुख्य अतिथियों ने किया। कार्यक्रम का आगाज़ प्रोफेसर हूबनाथ पांडे ने किया। अपनी प्रस्तावना में उन्होंने परिचर्चा के आयोजन के उद्देश्य पर रौशनी डालते हुए कहा,”किताब ‘रूदाद-ए-अंजुमन’ एक लिहाज़ से प्रगतिशील आंदोलन के उस दौर में ले जाती है, जब मुंबई में प्रगतिशील आंदोलन अपने शिखर पर था। लेखकों और संस्कृतिकर्मियों ने अपने आंदोलन को देश की आज़ादी से जोड़ा था। किताब पर बात करना, उस सुनहरे और उत्तेजक दौर को याद करना है।”

डॉ. अब्दुल्लाह इम्तियाज़ ने हिंदी-उर्दू साहित्य में तरक़्क़ी पसंद तहरीक के इतिहास पर अपना लेख पढ़ते हुए कहा,”इस तहरीक से जुड़े सभी लेखक, शायर और संस्कृतिकर्मी समाज से गैर-बराबरी हटाना चाहते थे और एक बेहतर समाज बनाना चाहते थे, जहां इंसान को प्रतिष्ठा से जीने का अधिकार मिले। इसी सोच और सपने को लेकर सज्जाद ज़हीर, मुल्कराज आनन्द और उनके कुछ साथियों ने प्रगतिशील लेखक संघ बनाया, जो आगे चलकर, एक आंदोलन बन गया। उर्दू अदीब और तर्जुमा निगार  वक़ार क़ादरी ने कहा, “आज बतौर इंसान जो खूबियाँ हम में नज़र आती हैं, उसमें तरक़्क़ी पसंद अदब का बड़ा योगदान है। प्रगतिशील और जनवादी  लेखन की वजह से हमें इंसानियत की तरगीब  ज़िंदा है।” वक़ार क़ादरी ने हमीद अख़्तर का एक ख़ाका ‘बेवकूफ’ भी पढ़ा, जो ख़ुद हमीद साहब ने लिखा था। इस मज़मून के माध्यम से कार्यक्रम में उपस्थित श्रोता और छात्र हमीद अख़्तर की जीवन यात्रा से रू-ब-रू हुए। भारत के पंजाब से लेकर पाकिस्तान तक का सफ़र उन्होंने कैसे तय किया, प्रगतिशील आंदोलन के लिए उनकी क्या प्रतिबद्धता थी, यह सब इस ख़ाके से मालूम हुआ।

मुख्तार खान ने याद दिलाया कि साल 2023 हमीद अख़्तर का जन्मशती वर्ष भी है। इस मौके पर उनकी किताब पर बात होना, उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि है। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि लेखक ज़ाहिद खान ने, जिन्होंने प्रगतिशील आंदोलन पर उल्लेखनीय कार्य किया है, अपना वक्तव्य देते हुए कहा, किताब ‘रूदाद-ए-अंजुमन’ पर मुंबई में चर्चा सत्र हो, ये उनकी दिली ख़्वाहिश थी। क्योंकि, किताब में दर्ज रिपोर्टों का प्रमुख केंद्र मुंबई ही रहा है। किताब मे प्रगतिशील लेखकों की चर्चाएं संकलित की गई हैं। तरक़्क़ी पसंद अदीबों की ये बैठकें मुंबई के देवधर आर्ट स्कूल, मारवाड़ी विद्यालय , अवामी इदारा और सज्जाद ज़हीर के घर जीवन हाउस मे आयोजित होती थीं। उन्होंने कहा, 25 मई 1943 को इप्टा का गठन भी मुंबई में हुआ था। पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी, ख़्वाजा अहमद अब्बास, पंडित रविशंकर,सलिल चौधरी, हेमंत कुमार, शेलेन्द्र, प्रेम धवन, संजीव कुमार जैसी बड़ी फ़िल्मी हस्तियां इप्टा से जुड़ी थीं।

लेखक जाहिद खान ने इस अवसर पर हाल ही में उर्दू से हिन्दी में लिप्यंतरित अपनी दूसरी किताब ‘पौदे’ का ज़िक्र करते हुए कहा, कृश्न चन्दर के इस ऐतिहासिक रिपोर्ताज की शुरुआत बोरीबंदर स्टेशन से होती है, जो आज का मुंबई का सी.एस.एम.टी स्टेशन है। उन्होंने अपने वक्तव्य में एक दिलचस्प बात का खुलासा करते हुए कहा कि वे उर्दू ज़बान नहीं  जानते। ‘रूदाद-ए-अंजुमन’ और ‘पौदे’ का लिप्यंतरण के लिए उन्होंने शायर इशरत ग्वालियरी की मदद ली। कार्यक्रम का आयोजन मुंबई में सम्भव हुआ इसके लिए उन्होंने जनवादी लेखक संघ और ख़ास तौर पर मुंबई यूनिवर्सिटी की पत्रिका शोधावरी का आभार व्यक्त किया।

परिचर्चा के एक अहम वक्ता संस्कृतिकर्मी कॉ. सुबोध मोरे ने लेखक ज़ाहिद खान की बात को आगे बढ़ाते हुए मुंबई की उन तमाम जगहों का ज़िक्र किया, जो प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन के साक्षी रहे हैं। जैसे सैंडहर्स्ट रोड का मारवाडी हॉल, दामोदर हॉल परेल, जहाँगीर हॉल, बायखला की  लाइब्रेरी अवामी इदारा, माटुंगा लेबर कैंप, झूला मैदान और इप्टा का मुंबई कार्यालय आदि। उन्होंने कहा, प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन, महज़ लेखकों और कलाकारों का ही अकेला आंदोलन नहीं था, मो. शाहिद एक प्रसिद्ध शायर  और मज़दूर युनियन के लीडर भी थे। वहीं कॉ. इनायत अख्तर भी एक लेखक और कामगार नेता थे।  इसीलिए बड़े पैमाने पर इस आन्दोलन से मज़दूर और कामगार जुड़े हुए थे। इस आंदोलन ने आज़ादी के आंदोलन को बल दिया। अंग्रेज़ सरकार और पूंजीपतियों के शोषण के ख़िलाफ़ कामगारों को एकजुट किया। उस दौर में लिखे गए जनगीत, नज़्में इनकी ज़बान पर होती थीं। उन्होंने कहा कि तरक़्क़ी पसंद तहरीक से जुड़े शायर मज़दूरों के लीडर भी थे। मज़दूरों के अधिकारों के लिए उन्होंने संघर्ष किया। प्रगतिशील आंदोलन की ताक़त मज़दूरों और मेहनतकशों के संघर्ष में छिपी थी।

व्यक्तिगत कारण की वजह से लेखक-आलोचक विजय कुमार इस कार्यक्रम मे नहीं आ सके, कवि संजय भिसे ने विजय कुमार द्वारा ज़ाहिद खान की किताब पर लिखे लेख को प्रस्तुत किया, “कुछ किताबें समय के आर-पार ले जाने वाली होती हैं। यह हमारे लिए एक दस्तावेज और अमूल्य धरोहर होती हैं। ‘तरक़्क़ी पसंद तहरीक की रहगुज़र’ और ‘रूदाद-ए-अंजुमन’ जैसी किताब पुराने वक्त का एक कॅलिडोस्कोप हैं। ऐसी किताबें हमारे सामने दुनिया का सम्पूर्ण दृश्य रखती हैं। महान कथाकार प्रेमचंद के कथन से उन्होंने अपने लेख की समाप्ति करते हुए लिखा, ‘हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें जीवन की सच्चाई का प्रतीक हो।……अब सोना नहीं है क्योंकि सोना मृत्यु का लक्षण है।

परिचर्चा की अध्यक्षता कर रहे कवि रमन मिश्र ने अपने अध्यक्षीय भाषण में संक्षेप में किताब ‘रूदाद-ए-अंजुमन’ का ज़िक्र करते हुए कहा, उस दौर में प्रगतिशील लेखकों के वाद-विवाद के मुद्दे देश की स्वाधीनता, देशवासियों की समस्याओं का साहित्य में चित्रण, संकीर्णतावाद का विरोध, सत्य और साहित्य, नारी समस्या, साहित्य के स्थायी मूल्य आदि थे। आलोचक रामविलास शर्मा ने भी किताब ‘रूदाद-ए-अंजुमन’ की तरह ही प्रगतिशील आंदोलन पर एक किताब लिखी है, जिसमें उस दौर के हिंदी रचनाकारों और उनकी साहित्यिक चर्चाओं का ब्यौरा है। ‘रूदाद-ए-अंजुमन’ कई मायने में एक महत्वपूर्ण किताब है। आज़ादी से पहले तरक़्क़ी पसंद अदीबों की साहित्यिक गतिविधियों को जानने के लिए यह एक ज़रूरी किताब है। उन्होंने कहा, ‘रुदाद-ए-अंजुमन’ का विस्तार हम मुंबई के सांस्कृतिक बाशिंदे करेंगे। परिचर्चा के अंत में कवि, प्रोफेसर हूबनाथ पांडे ने कार्यक्रम में उपस्थित लेखकों, संस्कृतकर्मियों, विद्यार्थियों और श्रोताओं का आभार व्यक्त करते हुए कहा, आज के समय में प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन पर चर्चा करना, भले ही कुछ लोगों की आउटडेटेड लगे, पर हमें ऐसी चर्चाएं लगातार करनी चाहिए। क्योंकि हम प्रगतिशील और जनवादी साहित्य के द्वारा समाज को सही तरह से समझकर, उसे बेहतर बना सकते हैं।

प्रोफेसर हूबनाथ पांडे ने देश के वर्तमान राजनीतिक, सामाजिक परिदृश्य पर टिप्पणी करते हुए कहा, मानव समाज का इतिहास रहा है कि वह लगातार प्रगतिशील रहा है, उत्तरोत्तर वह सभ्य होता गया। राजाओं, धार्मिक मठों, रूढ़ियों को उसने ढहाया। लेकिन अफ़सोस आज हम दोबारा इन्हीं रूढ़ियों में जकड़ते जा रहे हैं। उन्हीं मठों को पुन: स्थापित करने में लगे हुए हैं। ऐसे में प्रगतिशील और जनवादी मूल्यों में यक़ीन करने वालों की ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती है कि वे अपनी भूमिका सही तरह से निभाएँ। परिचर्चा का कड़ी दर कड़ी शानदार संचालन जनवादी लेखक संघ के मुख़्तार खान ने किया।

कार्यक्रम में बड़ी तादाद में हिंदी, उर्दू और मराठी भाषा के साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी ग़ज़लकार रकेश शर्मा, लेखक गंगाराम राजी, कथाकार हुस्ना तबस्सुम निहां, कवि फ़रीद खान, संजय भिसे, ड्रामा निगार आफाक़ अलमास, अवधेश राय, कामरेड चारुल जोशी (इप्टा), कॉ. शैलेश जोशी, किशोर सामंत, अफसाना निगार अनवर मिर्ज़ा, कवि ज़ुल्मीराम यादव, नाटककार प्रमोद नवार, सुरेश केदारे, मुकेश रेड्डी, प्रा.रमेश कांबले, सुशील कुसुमाकर, शायर मुस्तहसन ‘अज़्म’, उर्फी अख़्तर, शिवम गुप्ता, हसीन, दिव्या के अलावा बड़ी संख्या में मुंबई विश्वविद्यालय के विद्यार्थी शामिल थे।

(साभार रिपोर्ट :  रागनी कांबले)

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