अखिल भारतीय कबीरपंथी जुलाहा महासभा के चेयरमैन डॉ. हंसराज सुमन के नेतृत्व में युवाओं की एक टीम ने दिल्ली देहात और राष्ट्रीय राजधानी के आसपास बसे गांवों में जाकर यह पता लगाने का प्रयास किया कि जुलाहा जाति में शिक्षा का प्रचार प्रसार कितना है और इस जाति के लोग अपने पैतृक व्यवसाय को कितना जानते है। इसके अलावा टीम ने जुलाहा जाति के लोगों में अपनी जाति को लेकर कितनी जागरूकता है यह सब जानने के लिए जुलाहा/कबीर पंथी जुलाहा जाति के गौत्रों का सर्वे किया और जुलाहा जाति के विषय में वे कितना जानते है तो कई रोचक बातें निकल कर सामने आई जो इस प्रकार से है।
डॉ. हंसराज सुमन, प्रदीप कादियान, अश्विनी अहलावत, डॉ. हरकेश श्री मानक की टीम ने सर्वे के दौरान जुलाहा, कबीरपंथी/जुलाहा जाति के गौत्रों को लेकर आजादी से पूर्व व आजादी के बाद कितना आधुनिकीकरण हुआ है का पता लगाया। टीम को यह जानकर बड़ी हैरानी हुई, आखिर इन गौत्रों को आधुनिकीकरण किसने किया? इन गौत्र को आधुनिकीकरण करने के पीछे क्या कारण रहे? बता दे कि भारतीय समाज में सवर्णो की कुछ ऐसी जातियां है, जिनके गौत्र जुलाहा जाति व प्रतिबंधित जाति से पूरी तरह से मेल खाते हैं। दिल्ली में हर राज्य से आकर लोग बसे है, इनमें सबसे ज्यादा हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पंजाब के लोग हैं। इन शिक्षित लोगों ने सबसे पहले अपने गौत्रों का आधुनिकीकरण किया। इसके पीछे उनकी मंशा जो भी रही हो लेकिन विवाह-शादी के समय उन्होंने अपने मूल गौत्र व जाति का सही उल्लेख किया है।
डॉ. सुमन ने बताया कि जुलाहा जाति के बहुत से ऐसे गौत्र है जो जाट, राजपूत, पंजाबी, वैश्य, ब्राह्मण आदि के गौत्रों से पूरी तरह मेल खाते है और उस जाति के लोग उन्हें शक की निगाहों से देखते है। अकसर देखने में आया है कि स्कूल/कॉलेज/विश्वविद्यालय में एडमिशन के समय जब जुलाहा जाति का छात्र अपने जाति प्रमाण पत्र की प्रति लगाता है या अपनी जन्मतिथि का सर्टिफिकेट लगाता है तो उसके नाम के आगे जो सरनेम लगा है जैसे- सहरावत, अहलावत, दहिया, सरोहा, कटारिया, चौहान, तंवर, तोमर, पूनिया, मेहरा, पाटिल , श्योराण, भाटिया, भट्टी, सिंघल, कादियान, रंगा, सब्बरवाल, कालिया, काला आदि दर्जनों ऐसे गौत्र है जो सवर्णो के गौत्रों से मेल खाते हैं।
सर्वे के दौरान यह बात सामने आई कि 90 फीसदी लोगों ने यह बताया कि वे जुलाहा जाति से संबंध रखते है और उनका कहना था कि पूर्वज व बड़े-बूढ़ों का कहना है कि उनकी जाति कबीरपंथी जुलाहा है उनके परिवार के लोग लंबे समय तक सूत कातना, तानी, बानी, बुनकर आदि का काम करते थे। इतना ही नहीं बहुत से लोगों ने यह भी जानकारी दी कि उनके घरों में वे सभी औजार है जिससे बुनाई की जाती थीं। लोग उनसे खेस, कंबल, चादरें बनवाकर ले जाते थे लेकिन समय के साथ-साथ बच्चों ने शिक्षा की ओर मुड़ गए और अब वे नोकरी करने लगे। उन्होंने अपना पैतृक व्यवसाय छोड़ दिया है। इसके पीछे कई कारण है पहला बाजार में सभी वस्तुएं महंगी हो गई, नई-नई मशीनें आ गई, सभी कार्य मशीनों द्वारा होने लगा, सरकार द्वारा खड्डी लगाने के लिए लोन जल्दी से नहीं मिलता। इस कारण लोगों ने अपने पैतृक धंधे छोड़ दिए।
सर्वे के दौरान यह बात सामने आई है कि 95 फीसदी लोगों ने यह भी बताया कि हमारे पूर्वज बताते थे कि हमारी मूल जाति जुलाहा, कबीरपंथी जुलाहा है और हम भी ऐसा ही मानते हैं और हमारे पास जुलाहा जाति का प्रमाण पत्र भी है। कुछ लोगों का यह मानना है कि कबीरपंथी जुलाहा शब्द हमारी अस्मिता का प्रतीक है। हम जुलाहा है और जुलाहा ही रहेंगे। इस जाति के पढ-लिखे लोगों ने अपने मूल गौत्रों में अपनी सुविधानुसार परिवर्तन कर लिया है लेकिन शादी-विवाह में अपने मूल गौत्रों का मिलान करके, आमने सामने के गौत्र बताकर ही रिश्ते करते है।
सर्वे के दौरान जब जुलाहा जाति के लोगों से मिले तो नजफगढ़, महरौली, ढांसा बादली, नरेला, कुतुबगढ़, पल्ला बख्तावरपुर, नसीरपुर, पालम आदि के अलावा दिल्ली और इसके आसपास के हरियाणा के ग्रामीणों ने बताया है कि हमारे यहां जुलाहा, कबीरपंथी जुलाहा के अलावा प्रतिबंधित जाति से लोगों ने अपने जाति प्रमाण पत्र बनवाए हुए हैं। लेकिन खान-पान, विवाह-शादी गौत्र को देखकर कर रहे हैं। कुछ लोगों का कहना था कि समाज के कुछ लोग जो शिक्षित हो गए है उनके अंदर ही जाति और गौत्र की बात करते है। उन्होंने यह भी बताया कि दिल्ली में हमारी प्रतिबंधित जाति के लोगों के बच्चों की शादी-विवाह हो रहे है। हमने कभी उनसे दूरी नहीं बनाई लेकिन अब हमें यह सोचना पड़ता है कि प्रतिबंधित जाति के स्थान पर अन्य जाति का सर्टिफिकेट बनाने लगे है तो हमें शक होने लगता है, जब गौत्र पूछते है तब पता चलता है कि हमारी स्वजातिय बंधु है। यह सब पिछले सात-आठ सालों में हुआ है, पहले नहीं था। दिल्ली देहात के आसपास रहने वाले लोगों ने यह भी बताया कि दिल्ली वाले अपने जाति प्रमाण पत्र प्रतिबंधित शब्द से जाति का सर्टिफिकेट बनवाते है, उसका प्रयोग करते हैं और उसी प्रतिबंधित शब्द से जाति प्रमाण पत्र भी बने रहे हैं तो हम उनसे उचित दूरी बनाकर क्यों न रखें? कभी-कभी तो हमें उनका रिश्ता भी लेने से हिचकिचाते हैं। यह बातें अनपढ़ नहीं बल्कि पढ़े लिखें लोगों ने कही है। हमारी जाति एक है लेकिन केवल नाम के अंतर के कारण ही कुछ लोग आपसी दूरी बनाकर रखते हैं। इस जाति में भी आपसी भेदभाव काफी हद तक देखा जा सकता है ।
टीम ने दिल्ली और इसके आसपास हरियाणा के ग्रामीणों से आह्वान किया कि हमारे संगठन के द्वारा जुलाहा ध्कबीरपंथी जुलाहा शब्द को आगे लाने के लिए जो अभियान चलाया जा रहा है उसमें सभी आयु वर्ग के लोग बढ़-चढ़कर भाग लें। इस जाति में शिक्षा का प्रचार-प्रसार बढ़ रहा है लेकिन जब तक पता नहीं लगाया जा सकता जब तक लोग अपनी पुरानी जाति जुलाहा, कबीरपंथी जुलाहा की ओर नहीं लौटेंगे। जुलाहा महासभा यह कार्य बड़े जोर शोर से कर रही है लेकिन सरकार और गांवों में बने संगठनों की मदद के बिना जाति जनगणना, शिक्षा और रोजगार में इस जाति की कितनी भागेदारी है, संभव नहीं है।
डॉ. हंसराज सुमन
चेयरमैन, अखिल भारतीय कबीरपंथी जुलाहा महासभा