- मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष का फैसला अधर में
- नेता, अफसर, दलाल और ठेकेदार लगा रहे ठहाके, बाकी सब रो रहे
यदि पहाड़ के गांधी इंद्रमणि बडोनी, हंसा धनाई, राजेश रावत आज जिंदा होते, तो क्या सोच रहे होते? मुजफ्फरनगर कांड में अपनी अस्मत गंवाने वाली महिलाएं क्या उस भयावह रात को याद कर सिहर नहीं उठती होंगी? गन्ने के खेतों में गोलियों से दम तोड़ते लोगों की चीखें उस दिन जिंदा बच गये आंदोलनकारियों की रातों की नींद नहीं उड़ाती होगी। शहीदों के परिजन क्या सोचते होंगे? वो नौजवान जिन्होंने आंदोलन में रात-दिन अपना भविष्य गंवा दिया और आज भी बेरोजगार बैठे हैं, बस, एक अदद आंदोलनकारी के तमगे के साथ जी रहे हैं, वो क्या सोचते हैं? किसे इसकी परवाह है? जब नहीं है तो यह राज्य हासिल कर हमें क्या मिला?
राज्य गठन के 20 साल बाद भी पहाड़ के सीमांत गांव के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति को विकास की उत्कंठा है। गांव के आदमी की बात नहीं सुनी जाती। वह नीति-नियंताओं और इस राज्य के भगवान बने नेताओं की प्राथमिकताओं में शामिल है ही नहीं। गांव और गांव का आदमी दोयम दर्जे का है। धारचुला हो या देवाल, आराकोट हो या अस्कोट, आज भी वहां के लेागों के लिए देहरादून उतनी ही दूर है जितनी दूर लखनऊ था।
जो नेता राज्य गठन से पहले हमारे भाग्यविधाता थे और आंदोलन का पुरजोर विरोध कर रहे थे, वही आज हमारे भाग्यविधाता हैं। यह स्थिति ठीक उस तरह है कि श्रीदेव सुमन ने टिहरी रियासत के खिलाफ जंग लड़ी और शहादत दी, लेकिन आज भी टिहरी के राजा ही हमारे भाग्यविधाता हैं। आज भी हमारे फैसले दिल्ली से होते हैं चाहे वो मुख्यमंत्री का हो या नेता प्रतिपक्ष का। 57 विधायक देने के बावजूद भी पैराशूट सीएम दिया जाता है। मानो हम पर एहसान कर रहे हों।
दोष किसे दें? छदम राष्ट्रवाद को, गढ़वाल कुमाऊं की खाई को, पहाड़-मैदान को या जातिवाद को। असल बात यह है कि हमने राज्य तो हासिल कर लिया लेकिन इसके लिए हम तैयार न तब थे और न अब हैं। हमने जनता को समझाया नहीं कि दिल्ली दरबार और लखनऊ दरबार में कोई अंतर नहीं है। यदि हमें विकास चाहिए तो फैसले भी पहाड़ पर ही लिए जाने चाहिए। ऐसा नहीं हो सका, आंदोलनकारी भटक गये और नेता बिक गये। अब राज्य में चार जमात ही खूब खिलखिलाकर हंसते हैं, नेता, अफसर, दलाल और ठेकेदार। बाकी सब रो रहे हैं। कोई आंसू दिखाता है और कोई छिपाता है। रो सब रहे हैं अपनी और राज्य की किस्मत पर। ?
जिस देश और प्रदेश की जनता जागरूक नहीं होगी तो वहां के फैसले गैर ही करेंगे। इतिहास और वर्तमान यही सिखाता है।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]