पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ
पंडित भयो ना कोई ,
ढाई आखर ” प्रेम ” का
पढ़े सो पंडित होई ..!!
ये तो हम सबने पढ़ा है, पर प्रेम का वास्तविक अर्थ क्या किसी को पता है या इस शब्द का सरलार्थ किसी ने सोचा है कभी ? नहीं ना! क्योंकि, प्रेम या प्यार आजकल फैशन बन कर रह गया है जिसे युवा पीढ़ी ने और महिलाओं व पुरूषों ने शरीरिक संबंधों अथवा आकर्षण या फिर कुछ समय साथ बिताने तक सीमित कर दिया है जबकि सही मायनों में प + र+ ए+ म = “प्रेम” का मतलब “प” से परमात्मा व परोपकार, “र” से रसना या रस, “ए” से एक और ” म ” से मन और मोक्ष होता है (मेरे हिसाब से)। सरलार्थ करूँ तो “प्रेम” का वास्तविक अर्थ यदि आप वाकई किसी से प्रेम करते हैं, तो प्रथम तह: उसमें शारीरिक सुख का स्थान ना हो करके परोपकार और ज्ञान रस हो जो एक दुसरे के मन को उर्जा दे ताकि दुःखी उदास व्यक्ति की तकलीफ़ों का अंत आपके प्रेम से हो पाये। पर ऐसा होता कहाँ है जनाब।
लोगों का मिथ्य यह भी है की उनको लगता है, प्रेम या तो पति-पत्नी के बीच होता है या प्रेमी-प्रेमिका के बीच। पर यदि ऐसा तो तो विवाहोपरांत तलाक की नौबत ना आती और ना ही प्रेमी किसी और से तो प्रेमिका किसी और के साथ जीवन बिताते? “प्रेम” माता-पुत्र या पिता पुत्र का भी होता है और बहन-भाई का और दोस्तों का और तो और दादा-पोते का भी, बस सभी के भाव अलग-अलग होते है, कहीं मातृत्व है तो कहीं वात्सल्य, कहीं अपनापन है तो कहीं मोह बस थोड़ा अंतर है। पर मूलतः सभी में एक बात सामान्य है और वो यह की सामने वाले के लिए उसका भाव यही होता है कि, वह खुश रहे और उसे कोई तकलीफ़ ना हो। लेकिन आजकल कोई ना इस बात को समझता है ना किसी के जज्बात को। हर व्यक्ति चाहे महिला हो या पुरूष अपने स्वार्थ को ही देखता है, यदि स्वार्थ पूरा हुआ तो ठीक और नहीं हुआ तो फिर अक्सर बड़े अफ़सोस से कह देते हैं…
की कोई किसी का नहीं होता, लेकिन कोई ये नहीं सोचता की हम किसके हुए…?
आपका
रविन्द्र सिंह डोगरा
“नमूने” को बक्श कर जिंदगी में आगे बढ़ना शेष है, उसकी इन्तहाई शराफत का एक और नमूना पेश है!