‘दिन चले न रात चले’ 21वीं सदी के पहले दशक के भारतीय समाज का आईना

1043

सामयिक सिनेमा – दिन चले न रात चले

“तुम्हारी राजनीति इतनी कमज़ोर नहीं होनी चाहिए कि इक्के-दुक्के बंदूकधारी उसका सफरनामा तय करे। हर सफरनामे का एक अंत होता है। आपको भी अब कोई नई राह देखनी चाहिए, नया सफर…”।

फ़िल्म दिन चले न रात चले का यह संदेश, हमारे समाज में व्याप्त बेचैनी और बौखलाहट, बैद्धिक विमर्श और सादा देहाती जीवन की कुंठाओं को एक साथ शांत कर देता है। इससे आगे बस नई सोच, नई राह और मंज़िल है।

भारतीय फ़िल्म और टेलीविज़न संस्थान पुणे के पूर्व निदेशक, वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी त्रिपुरारी शरण द्वारा लिखित और निर्देशित यह फिल्म मजरूह सुल्तानपुरी की ग़ज़ल “जला के मिशअल-ए-जांह मजुनूं- सिफ़ात चले, जो घर को आग लगाए हमारे साथ चले” की पैरोडी में ढली एक निहायत ख़ूबसूरत कविता जान पड़ती है। जो फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के अंदाज़ में “रक्से-मय तेज़ करो, साज़ की लय तेज़ करो, सू-ए-मैख़ाना सफ़ीराने-हरम आते हैं” शुरू होती है और दर्शक के दिल-वो-दिमाग़ पर कोलाहल की तरहछा जाती है।

फिल्म की कहानी और उसका संदेश इतना ज़ोरदार है कि ड्रैमेटिक टूल के तौर पर क़ातिल धुमल सिंह के हाथ पर बना टैटू (गोदना) ही समूची पटकथा में एक्शन-रिएक्शन और आरोह-अवरोह या उद्दीपक यानी स्टिम्युलन्ट (Stimulant) बन जाता है। और इसके कंट्रास्ट टूल्स पूरी शिद्दत के साथ स्टोरी लाइन, कैरेक्टर ग्रोथ, इवेंट ग्रोथ, इंस्टीट्यूशन्स और फ्यूचर एक्शन को अंत तक बांधकर रखते हैं। और अंत में यही ड्रैमेटिक टूल फिल्म को क्लाइमेक्स पर पहुंचाता है।

फिल्म के महिला पात्र विधवा तरुनिमा, इसकी देवरानी दामिनी और डीएम की पत्नी हो या जाहिल मुश्ताक़ की पत्नी इमानी या माता राम की बेटी, सभी पढ़ी-लिखी, सभ्य, सौम्य और सामाजिक सरोकार के प्रति समर्पित होने के साथ-साथ महिला स्मिता और सामूहिक चेतना के प्रति सजग और प्रगतिशील हैं। हालांकि, इनके रख-रखाव, वेष-भूषा और तौर-तरीक़े निहायत साधारण और पारंपरिक हैं। लेकिन सबके अपने वैचारिक दृष्टिकोण, अपनी समझ और परिस्थियों से जूझने का अपना तरीक़ा है। इनके व्यवहार में अगर दया, करुणा और प्रेम की चाशनी है तो अपनी शर्तों पर किसी समस्या का समाधान ढूंढ लेने का तेवर भी है।

दिन चले न रात चले नामक इस फिल्म की सारी ट्रेजडी मृतक कमल चौधरी के बूढ़े पिता हरिहर चौधरी के किरदार उतर आई है, जो समूची फिल्म को निहायत संवेदनशील और गंभीर बना देती है। हरिहर चौधरी को दरअसल एक ऐसे सच्चे गांधीवादी सक्रिय राजनीतिज्ञ के किरदार में ढ़ाला गया है। जो अब रिटायर हो चुका है, थका हुआ एक ऐसा रानीतिज्ञ जिसके पास बाकी बचे जीवन कागुज़ारा करने के लिए तो हर तरह की सुख सुविधा है। लेकिन अब वह एक ऐसे असहाय बूढ़े बाप का किरदार है, जिसकी आपबीती हमारे आज के समाज की जगबीती है।

एक ऐसा सच्चा गांधीवादी जिसके पीछे एक ईमानदार राजनीतिक जीवन की शानदार विरासत है जिस पर अब उसकी ख़ुद की पकड़ ढीली पड़ती जा रही है। और ढलती उम्र के इस नाज़ुक पड़ाव पर अपने पद् चिन्हों पर चलने वाले जवान बेटे की हत्या ने उसके सामने चुनौती के तौर पर कई ऐसे ज्वलंत सवाल पैदा कर दिए हैं, जिसका जवाब ना तो इस मंझे हुए माहिर राजनीतिज्ञ के पास है और ना ही आज तेज़ रफ्तारी से तरक्की कर रहे हमारे समाज के पास।

जवान बेटे की हत्या के शोक और विलाप से इतर यह फिल्म हमारे देश की तेज़ी से बदलती डेमोग्राफी और ओल्ड एज सिक्योरिटी को पहली बार एक उभरती हुई गंभीर समस्या के तौर पर स्थापित करने की कोशिश करती है। हरिहर चौधरी के किरदार का अभिनय भी ग़ज़ब का है। चाबुक से सधे-कसे संवाद की अभिव्यक्ति में हूक सी उठने वाली टीस का अभिनय दिल को छू लेने वाला है। फिल्म निर्माण, अभिनय और निर्देशन के छात्र हरिहर चौधरी के किरदार के ट्रीटमेंट से बहुत कुछ सीख सकते हैं।

बॉलीवुड की दूसरी कॉमर्शियल फिल्मों से अलग त्रिपुरारी शरण की इस फिल्म में ट्रेजडी, आयरनी, डॉयलेमा और इंसानी रिश्तों की कसक दर्शक के मन-मस्तिष्क पर गहरा असर डालती हैं। बनते-संवरते, टूटते-बिखरते और फिर कभी नहीं मिलने की वेदना को समेटे हुए निजी रिश्तों का डॉयलेमा हो या शासन-प्रशासन और सामाजिक ताने-बाने में बुनी गई व्यवस्था में अपने कर्तव्यों के निर्वाहन की निष्ठा के बीच इंसानी रिश्तों की कशमकश को कैमरे में क़ैद करने कला, त्रिपुरारी शरण के पटकथा लेखन और निर्देशन की ख़ास पहचान हैं।

सिनेमेटोग्राफी और उसके सौन्दर्यबोध की बात करें तो महज़ चंद लोकेशन्स के साधारण सेट्स पर दो-ढाई घंटे की फिल्म की कल्पना मात्र ही किसी भी लेखक और निर्देशक को चौंका देने के लिए काफी है। ख़ास तौर पर तब जब स्पेशल विज़ुअल इफेक्ट्स की कोई संभावना न हो। ऐसे में शूटिंग का सारा दारो-मदार लाइट, एक्शन और सिनेमेटोग्राफी में ही कुछ कमाल करने का विकल्प बचता है। मज़ेदार बात ये है कि इस पूरी फिल्म का हर फ्रेम मीर तक़ी मीर के शब्दों में “औराक़-ए-मुसव्वर” की ख़ूबियों से लोत-प्रोत हैं कि “जो शक्ल नज़र आई तस्वीर नज़र आई”। इस लिहाज़ से देखा जाए तो इस फिल्म के स्क्रीन प्ले राइटिंग, डॉरेक्शन और सिनेमेटोग्राफी की उत्कृष्टता अपनी मिसाल आप है और इसकी जितनी तारीफ की जाए कम है।

फिल्म के आरंभ में ही इसके निर्देशन की महारत का अंदाज़ा हो जाता है। जब अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य के परिदृश्य में किसी सुसुप्त ज्वालामुखी के फटने के पहले की शांति एक सामाजिक कार्यकर्ता कमल चौधरी की हत्या से भंग हो जाती है। फिर शुरू होती है सधी हुई पट-कथा पर मंझे हुए निर्देशन का काम।

राधे फिल्म कोई पसंद करे या नापसंद; सलमान खान को इससे फर्क क्यों नहीं पड़ता?

फिल्म की समूची पटकथा के मेन-प्लॉट से लेकर सब-प्लॉट और माईनर प्लॉट तक अद्भुत दृश्यों की कलात्मक श्रृंखला ही फिल्म की हर घटना को स्थापित करने से लेकर परिस्थियों के आरंभ, प्रगति, विकास और उसके शाखाकरण के भेद का पुर्वानुमान देती हैं। यही कारण है कि कहानी इस तरह गुथती, कसती और बुनती चली जाती है कि एक लम्हे के लिए भी उसकी घेराबंदी से बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है।

फिल्म दिन चले न रात चले चूंकि 21वीं सदी के पहले दशक तक के लोकतांत्रिक भारतीय समाज का आईना दिखाती है, लिहाज़ा सवा दो घंटे की इस फिल्म में भारतीय समाज के हर एक टकराव और विरोधाभास को बहुत ही ख़ूबसूरती से पेश किया गया है। सामान्य नागरिक अधिकार से लेकर जात-पात, महिला संघर्ष, किसान-मज़दूर, ठेकेदारी, रंगदारी और अपराध जैसी प्रासांगिक समस्याएं और बहसें पंचायत, कलब और मुख्यमंत्री कार्यालय तक एक संवाद स्थापित करने का प्रयास करते हैं।

हालांकि, फिल्म की कहानी का विषय कोई बहुत ही अछूता या अनोखा नहीं है। लेकिन इसके किरदार और उनके बर्ताव बिल्कुल सामने के सहज, सरल और हमारे बीच के हैं। उनमें भी प्यार, नफरत, भय, जिज्ञासा, दर्द, ख़ुशी, तनाव, अरजेंसी उतनी ही शिद्दत से महसूस किए जा सकते हैं। जिस तरह हमारे आस-पड़ोस के लोग वैसी परिस्थितियों में महसूस करते हैं। ज़ाहिर है किसी फिल्म में ये ख़ूबियां निर्देशन की दक्षता से ही हासिल की जा सकती हैं।

फिल्म को शुरू से अंत तक बांधे रखने में इसके ड्रैमेटिक टूल मसलन अनसर्टेनिटी यानी अनिश्चित्ता की ख़ास भूमिका है। कमाल की बात यह है कि इतने कम बजट की फिल्म में समाज के लगभग हर स्वार्थ समूह का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया है। और उन्हीं के गुंजलक स्वार्थों के टकराव, अंतर्विरोधों, असमंजस और विरोधाभासों के अन्वेषण को पटकथा में जितनी ख़ूबसूरती से पिरोया गया है, उतनी ही महारत से निर्देशित किया गया है। जिसकी वजह से ये फिल्म अपने दर्शक को अंत तक बांधे रखती है।

फिल्म का कैनवस इतना बृहद और व्यापक है कि उसके साथ इंसाफ करते हुए पेश किया जाए तो यह फिल्म कम से कम तीन घंटे की बनेगी। लेकिन बजट की सीमा की वजह से फिल्म में स्पेशल इफेक्ट्स, म्यूज़िक, कॉमेडी सीन और मनोरंजन के दृश्य नाम मात्र के महसूस होते हैं।

इस फिल्म का सबसे दिलचस्प पक्ष यह है कि एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी द्वारा लिखित और निर्देशित फिल्म में सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर होने वाली राजनीति और उसपर प्रशासनिक व्यवस्था के बर्ताव और तौर-तरीकों को समझने का मौक़ा मिलता है। साथ ही किसी प्रशासनिक अधिकारी के कर्तव्य, उसकी निष्ठा और उसके मानवीय पक्ष को महसूस किया जा सकता है। जिसकी वजह से किसी प्रशासनिक अधिकारी के प्रति बना जनरल परसेप्शन बदल जाता है और उस अधिकारी के प्रति दया का भाव जागता है।

आज के परिदृश्य पर अपराध, रक्तपात, सांम्प्रदायिक भेद-भाव, पंथवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद और इस तरह की तमाम प्रवृतियां अपने वीभत्स रूप में विराजमान हैं। आश्चर्य की बात है कि हर प्रवृति, सच्चाई की अपनी-अपनी ठेकेदारी और श्रेष्ठता के नाम पर लाखों बेगुनाहों और मासूमों का ख़ून बहाने को जायज़ क़रार दे रही हैं। यही कारण है कि आज मानवता शर्मसार हो रही है और धरती दाग़दार। लोगों ने ख़ुदा को अलग-अलग बांट लिया है, अपने-अपने बुत गढ़ लिए हैं और निजी स्वार्थों का अपना गिरोह बना लिया है। गिरोहबंदी की इस आज़ादी को वो अपने लिए जायज़ समझते हैं, दूसरों के लिए उसी को नाजायज़। इस तरह 21 शताब्दी का सबसे बड़ा चैंलेंज मानवता की आज़ादी, मौज-मस्ती और अपनी-अपनी मान्यताओं के हक़ को बनाए रखना है। इस परिप्रेक्ष्य में फिल्म ‘दिन चले न रात चले’ विमर्श की अर्थवत्ता, उसके बेलागपन, आज़ादी और स्वच्छंदता के महत्व को और भी बढ़ा देती है।


-एजाज़ु-उर-रहमान (लेखक, निर्देशक एवं प्रस्तुतकर्ता, दूरदर्शन)

[साभार: www.epictureplus.com]

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here