’डॉ. वेदप्रताप वैदिक’
30 मई को भारत में हिन्दी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है। इसी दिन कोलकाता से 1826 में याने 195 साल पहले हिन्दी का पहला समाचार-पत्र ‘उदंत मार्तण्ड’ प्रकाशित हुआ था। इसके प्रकाशक और संपादक श्री युगलकिशोर शुक्ल थे। वह साप्ताहिक अखबार था। उसकी 500 प्रतियाँ छपती थीं लेकिन आज हिन्दी के अखबारों की लाखों प्रतियां छपती हैं। यह पहला हिन्दी अखबार अहिन्दीभाषी बंगाल प्रांत से निकला था। हिन्दी का पहला दैनिक अखबार ‘समाचार सुधावर्षण’ भी कलकत्ता से ही निकला था और उसके संपादक थे, डॉ. अमर्त्य सेन के नानाजी श्री क्षितिमोहन सेन। लेकिन अब हिन्दी इतनी फैल गई है कि उसके अखबार हिन्दी-अहिन्दी प्रदेशों के अलावा संसार के कई देशों से नियमित छप रहे हैं।
आज देश भर से निकलनेवाले लगभग एक लाख 20 हजार पत्रों में से सबसे ज्यादा हिन्दी में ही निकलते हैं। हिन्दी को गर्व है कि लगभग 50 हजार पत्र-पत्रिकाएं आज हिन्दी में प्रकाशित हो रही है और जहां तक प्रसार का सवाल है, उसमें भी हिन्दी बेजोड़ है। देश में अंग्रेजी का रुतबा जरूर बड़ा भारी है। उसका मूल कारण हमारे बुद्धिजीवियों, नौकरशाहों और नेताओं की दिमागी गुलामी है, लेकिन अंग्रेजी अखबारों की पाठक संख्या देश में सिर्फ 5 करोड़ के आस-पास है जबकि हिन्दी पाठकों की संख्या 20 करोड़ से भी ज्यादा है। यह तो सरकारी आंकड़ा है लेकिन आप यदि कस्बों और गांवों में चले जाएं तो आपको मालूम पड़ेगा कि एक-एक हिन्दी अखबार को मांग-मांगकर दर्जनों लोग पढ़ते हैं जबकि अंग्रेजी अखबारों को घर की महिलाएं और बच्चे भी नहीं पढ़ते। हिन्दी अखबारों और हिन्दी पत्रकारों ने पराधीन भारत में जो कुर्बानियां की थीं, उनका प्रामाणिक ब्यौरा मेरे ग्रंथ ‘हिन्दी पत्रकारिताः विविध आयाम’ में विस्तार से दिया गया है। स्वयं महात्मा गांधी मानते थे कि स्वाधीनता आंदोलन में हिन्दी पत्रकारिता का असाधारण योगदान था। यह ठीक है कि आपातकाल के दौरान अखबारों का गला घोंट दिया गया था। इसीलिए जब जून 1976 में राष्ट्रपति भवन में मेरे उस ग्रंथ का विमोचन हुआ तो मैंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के अलावा देश और कांग्रेस के लगभग सभी शीर्ष नेताओं को निमंत्रित किया था। राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति और दर्जनों केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों की उपस्थिति में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर जोर दिया गया था।
आज भी देश में घुटन का माहौल है लेकिन ऐसे अनेक अखबार और पत्रकार हैं, जो सारे दबावों के बावजूद ईमान की बात कहने से कतराते नहीं हैं। कोई सरकार उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। जो डरे हुए हैं, वे डरते हैं, अपने स्वार्थों के कारण! हिंदी के कुछ बड़े अखबार सचमुच स्वनामधन्य हैं, जो दूध का दूध और पानी का पानी कर देते हैं। कुछ हिन्दी के बड़े अखबार तो ऐसे हैं, जिनकी स्पष्टवादिता का मुकाबला अंग्रेजी अखबार कर ही नहीं सकते और देश-विदेश की कुछ खबरों में भी अंग्रेजी अखबारों से वे आगे निकल जाते हैं। हिंदी के कुछ टीवी चैनलों की निर्भीकता तो एतिहासिक है। पत्रकारिता-दिवस पर हिन्दी का मान बढ़ानेवाले पत्रों, पत्रकारों, चैनलों को तथा हिंदी के करोड़ों पाठकों को मेरी हार्दिक बधाई!!
(डॉ. वैदिक ‘नवभारत टाइम्स’ और ’पीटीआई-भाषा’ के संपादक रह चुके हैं)