गणेश महोत्सव से आतंकित रहते थे अंग्रेज

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  • बाल गंगाधर तिलक ने 1893 में शुरू की सार्वजनिक गणेश महोत्सव
  • महोत्सव के बहाने जनता को देशभक्ति और स्वतंत्रता के लिए जागरूक करने का अभियान

धर्म आज वोट हथियाने का जरिया है, लेकिन यही धर्म कभी आजादी हासिल करने का एक बड़ा जरिया था। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने धर्म को जनता को जागरूक करने के लिए उपयोग किया। उन्होंने 1893 में गणेश महोत्सव को सार्वजनिक तौर पर मनाने की परंपरा शुरू की। मकसद था कि इसी बहाने लोगों को आजादी के लिए जागरूक करना। तिलक ने शिवाजी महोत्सव और बाम्बे प्रेसीडेंसी के मुहर्रम जुलूस के जरिए भी देशभक्ति की भावना को जगाने का काम किया। उस जमाने में मुहर्रम के जुलूस में सभी धर्मों और वर्गों के लोग शामिल होते थे। इन धार्मिक कार्यक्रमों के जरिए देश की सांस्कृतिक एकता और देशभक्ति की भावना का संदेश दिया जाता था और आजादी के आंदोलन को गति देने की रणनीति तैयार की जाती थी। यही कारण है कि गणेश और शिवाजी महोत्सव से अंग्रेज हमेशा डरते रहे।
महाराष्ट्र के पुणे में बाल गंगाधर तिलक ने इसकी शुरुआत अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंकने के लिए की थी। उस वक्त मराठा साम्राज्य और महाराष्ट्र परिवारों को एकजुट करने के लिए गणेश उत्सव का श्रीगणेश हुआ। इसके बाद धर्मनगरी वाराणसी से लोगों को धर्म के नाम पर अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होने का संदेश दिया गया, तब से यह परंपरा अनवरत जारी है।
बताया जाता है कि साल 1892 में लोकमान्य तिलक बॉम्बे से पूना लौट रहे थे। ट्रेन में उनसे एक संन्यासी मिला, उसने तिलक से कहा कि हमारे राष्ट्र की रीढ़ धर्म है। इसके बाद तिलक के मन में कौंधने लगा कि लोगों की इस धर्मपरायणता का इस्तेमाल राष्ट्रभक्ति पैदा करने के लिए किया जा सकता है। तब महाराष्ट्र के घरों में गणेश चतुर्थी व्यक्तिगत रूप से धूमधाम से मनाई जाती थी। तिलक ने सोचा कि क्यों न जात-पात में बंटे लोगों को एक करने के लिए गणपति का सहारा लिया जाए और उन्होंने 1893 में केशवजी नाइक चॉल सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल की नींव रख दी।
इस मंडल के जरिए पहली बार सार्वजनिक रूप से गजानन की बड़ी प्रतिमा स्थापित कर महोत्सव शुरू हुआ। महोत्सव के मंच पर तरह-तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम होते तो देशप्रेम के भाषण भी दिए जाते थे। अब अपनी बात पहुंचाने के लिए लोगों को इकट्ठा करने की दिक्कत दूर हो चुकी थी। हालत यह थी कि अंग्रेज इस तरह लोगों के एकजुट होने से डरने लगे थे।
देखते ही देखते गणेशोत्सव महाराष्ट्र के कोने-कोने तक पहुंच गया और राज्य के लोगों में देशभक्ति की भावना का संचार होने लगी। एक समय ऐसा आया, जब इस उत्सव के मंच से नेताजी सुभाष चंद्र बोस और सरोजिनी नायडू ने भी देशवासियों को संबोधित किया था। गणेशोत्सव की पहुंच का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इससे ब्रिटिश प्रशासन डर गया था। रॉलेट कमेटी की रिपोर्ट में भी स्पष्ट रूप से इसका जिक्र किया गया है।
(वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार)

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