एक नामी इतिहासकार की गुमनाम मौत

783

कौन लिखेगा इतिहासबोध में यह बात?
– अस्पताल में एक अदद बेड के भी लड़नी पड़ी लंबी जंग
– साबित कर दिया, कुलीनता ने किया है जनतंत्र को कैंसरग्रस्त

भोर की किरण निकलने से पहले ही देश ने आज अपने एक और प्रख्यात हस्ती को कोरोना की जंग में खो दिया। 84 साल के इतिहासकार प्रो. लालबहादुर वर्मा का तड़के लगभग पौने चार बजे निधन हो गया। उत्तराखंड के महंत इंद्रेश अस्पताल के आईसीयू में उन्होंने अंतिम सांस ली। रायपुर श्मशान घाट पर सुबह नौ बजे तक उनका अंतिम संस्कार भी हो गया। मौत शास्वत है। हर एक को एक न एक दिन मौत आनी है लेकिन सवाल यह है कि क्या प्रो. वर्मा इस तरह गुमनाम मौत के हकदार थे? क्या उन्हें बेहतर और अच्छा इलाज नहीं मिलना चाहिए था? क्या वो हमारे देश की धरोहर नहीं थे? क्यों उन्हें कोरोना होने के बाद भी आईसीयू बेड के लिए जंग लड़नी पड़ी? क्यों उनकी बेटी आशु और उनके पति दिगबंर को ऑक्सीजन सिलेंडर के लिए दर-दर भटकना पड़ा? देश के बेस्ट ब्रेन यानी यूपीएससी के सैकड़ों आईएएस, आईपीएस और अन्य अफसरों ने यह पदवी उनके लिखे इतिहास को पढकर हासिल की साथ ही मसूरी स्थित लाल बहादुर शास्त्री प्रशासनिक अकादमी यानी एलबीएस में उनके लेक्चर सुनकर जिंदगी के पाठ पढ़े। लेकिन अंतिम समय में उनके काम कोई नहीं आया। न सरकार और न अफसर।

कोरोना फैला कर सबसे अधिक लाभ कमा रहा चीन

नेताओं को यदि छींक भी आती है तो उनको एयरलिफ्ट कर दिल्ली एम्स, अपोलो, मैक्स, मेदांता में पहुंचा दिया जाता है। बिल अदा होता है जनता के पैसों से। लेकिन जब बात समाज के आदर्श लोगों की होती है तो सरकार अदृश्य हो जाती हैं। यह उपेक्षा खून में उबाल लाने का काम करती है। मैं बहुत दु:खी और आक्रोशित हूं कि प्रो. वर्मा को अंतिम दिनों में वह सम्मान और इलाज नहीं मिला, जिसके वो हकदार थे। उनकी इस तरह की विदाई बहुत व्यथित कर रही है। यदि सरकार चाहती तो समय पर उनको अच्छा इलाज मिल सकता था और उनकी जान बच जाती, लेकिन सरकार तो सिस्टम बन गयी और सिस्टम नकारा साबित हो रहा है।

कोरोना संक्रमित होने के बाद प्रो. वर्मा को पांच मई को महंत इंद्रेश अस्पताल में भर्ती कराया गया था। 9 मई को उनकी हालत खराब होनी शुरू हुई। रात के लगभग दस बजे पत्रकार साथी विपनेश गौतम का फोन आया कि उनको आईसीयू बेड नहीं मिल रहा, कुछ हो सकता है। ऑक्सीजन की कमी थी। मैंने रात 12 बजे तक कई जगह फोन किये। पीआरओ भूपेंद्र रतूड़ी का फोन नॉट रीचेबल था तो उन्हें मैसेज भेजा। रात भर बेड नहीं मिला। दूसरे दिन सुबह रतूड़ी जी से बात हुई तो उन्होंने व्यवस्था करने की बात कही। आईसीयू बेड तो नहीं मिला लेकिन किराये पर ऑक्सीजन सिलेंडर और मशीन लेकर इलाज चलता रहा। मनमीत, गीता गैरोला दीदी आदि लोग भी प्रयास करते रहे। दिगम्बर के अनुसार फोन बहुतों के आते थे, लेकिन आश्वासन के सिवाए कुछ नहीं मिला। प्रो. वर्मा की किडनी को इससे काफी नुकसान पहुंचा और डायलेसिस नहीं हो सका, क्योंकि उनका ब्लड प्रेशर बहुत कम था।

प्रो. वर्मा की बेटी आशु और उनके पति दिगंबर ऑक्सीजन सिलेंडर के लिए भी दर-दर भटकते रहे। दो दिन पहले आईसीयू बेड मिला। महंत के डाक्टर आशुतोष ने पूरी शिद्दत के साथ उनकी मदद की। डा. आशुतोष को सैल्यूट। प्रो. वर्मा ने अपने लेख कुलीनता और जनतंत्र में कहा था कि कुलीनता ने जनतंत्र को कैंसरग्रस्त किया हुआ है। अंत में उन्होंने इसे साबित भी कर दिया कि तंत्र को जनता से कोई मतलब नहीं। आज इतिहासकार खुद इतिहास का हिस्सा बन गये लेकिन उनके इस इतिहास को लिखेगा कौन? बस, इतिहास के एक और अध्याय का दुखद अंत हो गया।
अलविदा, प्रो. वर्मा। अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here