- राजनीति और पत्रकारिता में झूठे और मक्कारों की भरमार
- पत्रकार और कार्यकर्ता दोनों ही ही होते हैं शोषण का शिकार
जो लोग मीडिया या राजनीति में हैं, वो जानते हैं कि इन दोनों की असल तस्वीर क्या है। मसलन, मीडिया में जब कोई नया संपादक आता है, तो वह पत्रकारों के लिए नये-नये नियम निकालता है। उनको कमरतोड़ मेहनत कर उनके खून का एक-एक रेशा चूसना चाहता है। वह टीम के सदस्यों को बहकाता है कि तुम मेहनत से काम करो, मैं तुम्हें अच्छा इंक्रीमेंट और प्रमोशन दिलवाउंगा। पत्रकार कहते हैं कि पिछले संपादक जी ने ये वादा किया था, नया संपादक कहता है, पुराने ने क्या कहा, मैं नहीं जानता, अब जो मैं कह रहा हूं वो करो। पत्रकार बेचारा दिन-रात मेहनत करता है। पहले साल जब वैसे ही साधारण इंक्रीमेंट मिलता है तो वह संपादक से शिकायत करता है। संपादक फिर गोली देता है, इस बार देखना, जबरदस्त इंक्रीमेंट मिलेगा। जब दूसरा साल आता है तो पता चलता है कि संपादक का तबादला हो गया। या उसे नौकरी से हटा दिया गया। उस संपादक के वादे उसके साथ ही खत्म। अब नया संपादक नये तरीके से फिर शोषण करता है। पत्रकारों के शोषण की नई कहानी शुरू।
यही हाल राजनीति में भी है। कार्यकर्ता जीवन भर झंडा-डंडा उठाता है और टिकट कोई और ले जाता है। कार्यकर्ता को कहा जाता है कि अगली बार। वो अगली बार कभी नहीं आता। ऐसे ही जनता के साथ होता है। उम्मीदों और वादों के बीच जनता झूलती है। दिल्ली के आका जनता को ठगने के लिए एक मोहरा खड़ा कर देते हैं। मोहरा जमकर वादे करता है और झूठ बोलने में खूब मेहनत करता है। इसके बावजूद वो चुनाव हार जाता है। क्या दिल्ली के आका इतने मूर्ख हैं कि ऐसे झूठे को मुखिया बनाएंगे जो उनके गले की फांस बन जाएं कि पिछले जो वादे किये थे, वो निभाओ? हद है दिमाग लगाओ।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]