मैं तिहाड़ जेल का लौहद्वार हूँ। अभी-अभी जो व्यक्ति अपने लस्त-पस्त शरीर को किसी तरह आगे धकेलता हुआ मुझसे बाहर निकला है मैं उसे कैदी नम्बर 506 के नाम से पहचानता हूँ। वैसे उसका नाम दिनेश वर्मा है जिसे मेरे साथ ही दूसरे सभी भी भूल चुके हैं। यह नम्बर ही अब उसकी पहचान बन चुका है।
तीन पहले जब इस व्यक्ति को मुझ तक लाया गया था तो इसने यहाँ चीख-चीखकर कहा था कि वह निर्दोष है और उसने किसी का बलात्कार नहीं किया। मुझ तक आने से पहले यह पुलिस और अदालत के सामने भी चिल्लाया होगा कि वह और नीलिमा पिछले चार साल से लिव-इन में रह रहे थे और अब नीलिमा उसका सब-कुछ अपने नाम करवाने के लिए उसे ब्लैकमेल कर रही है। पुलिस ने उसे सिर्फ हड़काया था, न्यायालय ने आँखों पर पट्टी बाँधी हुई थी और मुझ बेजुबान ने तो कितने ही दिनेशों को अन्दर-बाहर आते-जाते देखा है।
आज तीन साल बाद ऊपरी अदालत के कानों में सच्चाई की भनक पड़ ही गई। अभियोजन पक्ष उसे वहाँ दोषी साबित करने में पूरी तरह विफल रहा तो उस अदालत ने उसे ‘बाइज्जत‘ बरी कर दिया।
इस समय रात सड़कों पर उतर रही है। मेरे सामने ही वह चौहारा है जिससे निकलकर जाती चारों सड़कें बिजली की तेज रोशनी में नहायी हुई हैं लेकिन मैं जानता हूँ कि उस चौराहे की तरफ बढ़ते इस दिनेश की भी दूसरे कई दिनेशों की तरह ही चारों राहें अन्धकार में डूब चुकी हैं। मैं इन दिनेशों की हालत से आक्रोशित होकर चीखना चाहता हूँ लेकिन मैं चीख नहीं सकता। मैं लौहद्वार हूँ।
मधुदीप
(मेरी चुनिन्दा लघुकथाएँ से साभार)
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