दशहरा बाद के बीस दिन जैसे नीले घोड़े पर सवार होकर उड़े जा रहे थे। बँगलों में हो रही साफ-सफाई और रँगाई-पुताई ने सूचित कर दिया था कि प्रकाशपर्व नजदीक आ गया है। जे.के. व्हाइट सीमेण्टवाली वाल-पुट्टी तथा एशियन पेण्ट से दीवारें बोल उठी थीं मगर सम्भ्रान्त कॉलोनी की इन दीवारों के बीच पाँच आशियाने ऐसे भी थे जिनकी दीवारें वर्षों से बोलना भूल गई हैं। इनके वारिस अपने बुजुर्गों को देश में अकेला छोड़ विदेशों में जा बसे हैं।
वे बुजुर्ग सुबह की सैर से लौटकर ऊँचे परकोटों से घिरे अपने-अपने आलीशान बँगलों के नॉन में पड़ी आरामकुर्सियों में पसरे एकटक सामने देखते रहते हैं। माली की खुरपी चलती रहती है ओर गेट पर दरबान मुस्तैद खड़ा रहता है, मगर उनकी तरफ इनका ध्यान नहीं होता। इनका दिन तो तब आगे बढ़ता है जब गेट से कामवालियाँ प्रवेश करती हैं। साफ-सफाई होती है, चाय-नाश्ता मिलता है और दोपहर का भोजन पैक होता है। कुछ देर को सन्नाटा टूटता है मगर बेताल की तरह आकर फिर पसर जाता है।
इन बुजुर्गों के लिए दिवाली-दशहरे का कोई अर्थ ही नहीं रह गया है। विदेशों से अपनों की फोन-कॉल्स, ‘हाय-हलो‘, ‘हैप्पी दिवाली‘, ‘हैप्पी दशहरा…‘ और बस…! ये सभी शरीर से बिलकुल स्वस्थ लगते हैं मगर एक टूटन भरी थकान इनके पोर-पोर में भरती जा रही है। ये पाँचों प्रतिदिन आपस में मिलते हैं, लम्बी-लम्बी गप्पें मारते हैं, अपनी-अपनी जवानी की यादें दोहराते हैं मगर इस थकान को अपने से अलग नहीं कर पाते।
आज दिवाली की प्रभातवेला में जब ये पाँचों सुबह की सैर के बाद एक परकोर्ट के लॉन में पड़ी कुर्सियों में जाकर धँस गए तो उस परकोटे की ऊँची दीवारें बहुत देर तक फुसफुसाहटें सुनती रहीं। अपने-अपने मालिकों के परकोटों को बन्द पाकर वे पाँचों कामवालियाँ जब इस परकोटे में पहुँची तो वहाँ निरछल खिलखिलाहट फैली हुई थी। वे कुछ न समझ सकीं और हैरान-परेशान-सी उनके दिन को आगे बढ़ाने के लिए अन्दर चली गईं।
सुबह का नाश्ता एक साथ करते हुए वे सभी अपनी थकान को समेटकर एक निर्णय पर पहुँच चुके थे।
लक्ष्मी-पूजन के बाद जब सम्भ्रान्त लोग अपने-अपने परिवारों के साथ कॉलोनी में फैले प्रकाशपर्व को देखने छतों पर पहुँचे तो उनकी आँखों के सामने अद्भुत नजारा था…।
साथ लगी कामगारों की कॉलोनी में मोमबत्तियों, दीयों और बिजली की लडि़यों की रोशनी का झलमला फैल रहा था…सम्भ्रान्त कॉलोनी के वे पाँचों बुजुर्ग बच्चों के साथ गोल-गोल घूमते हुए ताली बजा रहे थे, छोटे-छोटे पटाखे छुड़ा रहे थे।
मधुदीप
(मेरी चुनिन्दा लघुकथाएँ से साभार)
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