दीवाली हिन्दुओं का त्योहार है। धर्मनिरपेक्षता इसी त्योहार पर नजर आती है। यह त्योहार रोशनी का है, इसलिए इस दिन सब काला धन सफेद हो जाता है। अब यह पर्व रिश्वत लेने और देने का आफिसियल त्योहार है। आप किसी अधिकारी या नेता या मंत्री को हीरे का हार या मर्सडीज-ऑडी कार तक गिफ्ट दे सकते हैं। कोई विरोध नहीं, कोई सवाल नहीं। गिफ्ट-गिफ्ट होता है। यदि गिफ्ट नहीं दो, तो परिवार के सदस्य से लेकर समाज नाराज हो जाता है। नाराजगी अपनी-अपनी होती है। वहीं, डायबिटीज के जमाने में मिठाई का रिवाज बदल रहा है। लोग अब एक-दूसरे का ध्यान रखते हैं और मिठाई की बजाए ड्राईफू्रटस देते हैं।
नेता दिवाली पर भी सबसे अधिक कंजूस होते हैं। उन्हें किसी को गिफ्ट देना होता है तो सचिव को, सचिव, चीफ इंजीनियर को और फिर जेई से कहता है, गिफ्ट का ठीकरा ठेकेदार के सिर फूटता है। ठेकेदार गिफ्ट लाकर देता है। बदले में सड़क पर 1 बोरी सीमेंट में 12 तसले की बजाए 16 तसले रेत मिला देता है। एमबी पास हो जाती है। चूंकि अफसर ने नेता को ओबलाइज करना है और नेता ने पत्रकार को। तो लोकतंत्र के तीन खंभे आपस में मिल जाते हैं। चौथा खंभा दूर खड़ा मुस्कराता है। सबूत दो, सबूत दो चिल्लाता है। वह लोकतंत्र के इन तीन खंभों का बोझ नहीं सह पाता है, और दिवाली के दिन धाराशायी हो जाता है।
दिवाली पर जुए और दारू का चलन भी है। जुए में रात-भर हार जीत होती है। चूंकि सब दोस्त होते हैं तो जुआ भी हैसियत का होता है और दारू की ब्रांड भी। सब हैसियत के ब्रांड की दारू पीते हैं और खुशी से दिवाली मनाते हैं। पटाखे वैभव का प्रतीक हैं। हैसियत से अधिक इनका प्रदर्शन होता है और पटाखों के शोर से कुछ बहुओं को घर में खांसते-थूकते बूढ़ों से छुटकारा मिल जाता है।
उधर, पड़ोसियों के बीच सोनपापड़ी का जबरदस्त युद्ध चलता है। तर्क दिया जाता है कि मिलावट का जमाना है लेकिन सोनपापड़ी में कोई मिलावट नहीं। बेचारी पापड़ी, एक घर से दूसरे घर होते हुए आखिरकार सिक्योरिटी गार्ड, माली-धोबी या कामवाली बाई तक पहुंच जाती है। इसके बाद ही सोनपापड़ी राहत की सांस लेती है कि चलो कोई तो उसे खाएगा। दिवाली के दिन आखिर भूख और गरीबी की भरे पेट वालों से चली आ रही जंग कुछ देर शांत हो जाती है। दिवाली के दिन धनवानों के घर लक्ष्मी की पूजा होती है और सोनपापड़ी के तौर पर गरीबों की पेट पूजा।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]