यकीन मानिये हिंदी के व्यावहारिक प्रचलन में सबसे बड़ी बाधा सरकारी विभाग है। यहां मानक बनाने वाले कोई और नहीं बल्कि प्रख्यात हिंदी सेवक ही होते रहे हैं। सरकारी अधिकारी भाषा का मानक सुनिश्चित नहीं करते, महज विशेषज्ञों के पैनल की फाइल को आगे बढ़ाते हैं। और ये विशेषज्ञ ज्यादातर डॉक्टरेट हिंदी सेवी होते हैं। संश्लिष्ठ, संक्षिप्त शब्दों के अनुवाद पर इनका ज्यादा जोर रहता है। जिसका कोई प्रचलन ही नहीं है। ना सरकारी फाइलों में ना कहीं और। वह कोष के रूप में प्रकाशित हो जाता है और पुस्कालयों में विभागीय बजट व्यय पर वितरित हो जाता है।
अंग्रेजी के तकनीकी शब्दों के हिंदी मानकीकरण को इतना ज्यादा तत्समपरक बना दिया गया कि उसके मानवीकरण का पक्ष ही गौण हो गया। संस्कृत कुलीनों की भाषा रही, कुछ उसी तर्ज पर यहां हिंदी के मानक शब्द बनाये जाते हैं। और देशज अथवा प्रचलित उर्दू से परहेज किया जाता है। सारा जोर इस बात पर रहता है कि अनुवाद संस्कृतनिष्ठ हो। और यह आज से नहीं है, बल्कि दशकों से जारी है। जाहिर यह उपक्रम हिंदी के विकास के लिए नहीं है, हिंदी के नाम पर बजट, वेतन और बैठक के लिए है।
इसके बरअक्स व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को देखिये। पिछले ढाई दशक में खासतौर पर समाचार मीडिया के जरिये हिंदी का कितना सफल प्रचार प्रसार हुआ है। याद कीजिये आज से ढाई दशक पहले फिक्की, एसोचेम, इंटनेशनल फिल्म फेस्टिवल याकि बजट बहस में कितने लोग हिंदी में बोलते थे या कि लिखते थे? अखबार के दफ्तरों में फिक्की, एसोचेम, इंटनेशनल फिल्म फेस्टिवल या बजट की सारी सुर्खियां और प्रेस नोट अंग्रेजी में आते थे। सारे फिल्मी सितारे अनिवार्यत: अंग्रेजी में ही बोलते थे, लेकिन अब?
खास तौर पर आजतक चैनल के शुरू होने के बाद स्क्रीन पर सुदूर दक्षिण से लोग हिंदी में बोलते देखे सुने गये। फिक्की के अधिकारी हिंदी में इंटरव्यू देने लगे, एसोचेम के मंथन की ब्रीफिंग हिंदी में मिलने लगी, इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल की खबर केवल देर रात टीवी कवरेज तक सीमित नहीं रही। वहीं हिंदी सिनेमा तो हिंदी भाषा को सात समंदर पार तक पहले ही पहुंचा दिया था जिसका असर देखिये कि जब पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा दिल्ली आए तो उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत ही हिंदी फिल्म के डायलॉग से की-बड़े बड़े देशों में…।
तो मतलब यह कि व्यवसाय की हिंदी कहां से कहां तक कितनी आसानी से पहुंच गई लेकिन हमारी सरकारी/अकादमिक हिंदी कहां तक सीमित रह गई? इस पर हमें खुल कर विचार करना चाहिये। आखिर दोनों के कलेवर में कितना फर्क रहना चाहिये। हमारे कुछ हिंदी के लेखक, साहित्यकार का मानना है कि जो किताब या रचना ज्यादा पढ़ी जाये वह लोकप्रिय श्रेणी में आती है जो कम पढ़ी जाये वह गंभीर होती है। लेकिन गोष्ठियों में वो इसी बात पर चिंता करते हैं कि हिंदी समाज हिंदी लेखकों को आखिर पढ़ क्यों नहीं रहा है। यानी वो खुद को पढ़वाने के ख्वाहिशमंद होते हैं लेकिन दूसरों के ज्यादा पढवाने से डरे रहते हैं।
मेरा मानना है हिंदी का जितना व्यावसायिक उपयोग होगा, हिंदी का उतना ही विकास होगा। निर्भर लेखक की दक्षता पर है। वह किस तरह की भाषा का प्रयोग करते हैं। फणीश्वरनाथ रेणु की भाषा आखिर किसी को क्यों ना तो बोझिल, अबूझ लगती है और ना ही लोकप्रियतावादी? इसीलिये मेरा अनुरोध है कृपया हिंदी को बहू बनाकर घूंघट में ना बिठा कर रखें। उसे चहारदीवारी से निकलकर सेल्स गर्ल बनने दें। यकीन मानिये इससे हिंदी की इज्जत नहीं जायेगी। बल्कि हिंदी के माथे पर चार चांद वाली बिंदी लग जायेगी।
संजीव श्रीवास्तव
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