ऐसे तो नहीं मिलेगा सशक्त भू-कानून

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  • 90 फीसदी से अधिक नेता हैं जमीनों की खरीद-फरोख्त में शामिल
  • कमीशन कू मीट-भात पहुंचता है नीचे से लेकर ऊपर तक

कुछ माह पूर्व मैंने जम्मू कश्मीर में तैनात एक ले. कर्नल के समर्थन में एक पोस्ट लिखी थी कि वह चीन के साथ इंच-इंच भूमि की रक्षा कर रहा था तो देहरादून में बाहरी लोगों ने उसकी 5 बीघा जमीन कब्जा ली। तत्कालीन सीएम त्रिवेंद्र चचा ने हस्तक्षेप किया, इसके बावजूद कर्नल की जमीन पर कब्जा अब तक बरकरार है। यह है बाहरी लोगों की ताकत। मामला हाईप्रोफाइल था तो एसडीएम ने कब्जे की बाउंड्री तुड़वा दी। लेकिन महीनों बाद भी कब्जा नहीं मिला। इनसे मिले हुए होते हैं वन विभाग, नगर निगम, पुलिस और नेता। यानी सबका अटूट गठजोड़ है। फिर हमारा कानून भी गजब का है। कब्जा की गयी जमीन पर स्टे मिल जाता है और सिविल कोर्ट में वर्षों तक सुनवाई नहीं होती।
उदाहरण 1962 के भारत-चीन युद्ध के हीरो जसवंत सिंह की मां की जमीन पर भी कब्जा रहा जिसे छुड़ाने में वर्षों लग गये।
प्रेमनगर की गढ़वाली कालोनी में करगिल शहीद की विधवा को सरकार द्वारा पेट्रोल पंप के लिए दी गयी जमीन पर भी भूमाफिया का कब्जा है जो आज भी नहीं छूटा। अधिकांश कब्जे बाहरी लोगों ने किये हैं। हम पहाड़ी तो अपराध के प्रति डरपोक होते हैं। यानी अपराध करने से डरते हैं साथ ही लड़ने से भी। इस डर का लाभ बाहरी उठाते हैं और उनका साथ देते हैं कुछ जयचंद। जयचंदों के तार पार्षद, विधायक और मंत्री तक होते हैं और कमीशन का मीट-भात सब तक पहुंच जाता है। जमीनों की लूट-खसोट तभी बंद होगी जब सशक्त भू-कानून होगा और वो आएगा नहीं। क्यों हम पहाड़ी लड़ाकू नहीं समझौतावादी हैं।
कल एक दल का एक नेता घंटाघर पर भू-कानून को लेकर भूख हड़ताल पर बैठा। यह दल क्षेत्रीय मुद्दों पर राजनीति करने का दावा करता है लेकिन मजाल क्या है कि वहां उस दल का कोई बड़ा नेता पहुंचा हो। बाकी भी चुप रहे, यह सोचकर कि अदना सा नेता क्यों अपनी राजनीति चमका रहा है। नतीजा, दल की भी और हड़ताली की भी फजीहत हो गयी। दो-तीन घंटे बाद ही पुलिस उसे उठाकर ले गयी। उसे उठाने का विरोध करने वाले थे कुल आठ, जिनमें अधिकांश महिलाएं थीं। इसके साथ ही आमरण अनशन का हृदय विदारक अंत हो गया। आखिर इस तरह से फजीहत करानी थी तो दल के नाम का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए था। यदि दल का नाम इस्तेमाल हुआ है तो वहां दल की ताकत भी नजर आनी चाहिए। ऐसे हंसी उड़ाने का अर्थ समझ से बाहर है।
उधर, सरकार जानती है कि यदि भू-कानून की आग भड़की तो इसमें भाजपा सरकार बर्बाद हो जाएगी। इसलिए पुलिस ने त्वरित कार्रवाई की और उठा लिया आमरण अनशनकारी कों। यदि वो सच्चा अनशनकारी है तो अब भी भूख-हड़ताल पर बैठा होगा। यदि सस्ती लोकप्रियता चाहिए थी तो वो इस समय दही-पराठा खा रहा होगा।
दरअसल, मुद्दा गरम है। भाजपा सरकार भले ही भू-कानून की बात कर रही हो, लेकिन करेगी नहीं। यदि ईमानदार होती तो एक दिन में भाजपा कार्यालय बनाने के लिए चैंज आफ लैड यूज्ड कानून को न बदलती। 2018 में जमीनों को खुर्द-बुर्द करने के लिए कानून भी भाजपा ही लाई। इसलिए जो लोग सोच रहे हैं कि धामी सरकार कानून लाएगी वो मुगालते में हैं। धामी सरकार जिस समिति को बनाने की बात कर रही है उसकी हकीकत सब जानते हैं। 20 साल के इतिहास में आज भी किसी समिति की रिपोर्ट उजागर नहीं हुई। इसलिए बिना रणनीति के न तो आंदोलन चलेगा और न सरकार पर दबाव बनेगा। आंदोलनकारियों को एक झंडे के नीचे आना होगा। इसे प्रदेश व्यापी बनाना होगा। तो साथियों लगाओ जोर।
[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

हरदा का यह रूप खतरनाक है

 

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