यह कौन सी और कैसी पत्रकारिता है?

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  • जो खबर टॉप बाक्स होनी थी, वो इंसेट में समेट दी
  • मुख्यमंत्री का करवा चौथ क्या दुनिया से अलग था?

यूं तो मैंने अब अखबार खरीदने बंद कर दिए, लेकिन पड़ोसी का हिन्दुस्तान बाहर पड़ा था तो एक नजर देख लिया। अवाक रह गया। ये कैसी और कौन सी पत्रकारिता है? मुख्यमंत्री और उनकी पत्नी की करवा चौथ की फोटो फ्रंट पेज के टॉप पर लगी है। चरणवंदना और चाटुकारिता के इस दौर में यह कोई बुरी बात नहीं। लेकिन सदमा तो खबर के चयन को लेकर हुआ। नीचे एक दो कालम की खबर लगी है कि गुलदार की दहशत से स्कूलों में छुट्टी और इस खबर के इंसेट में बाक्स लगा है कि गुलदार को मारने के लिए रात भर शिकारी उस बच्ची की लाश को चारे के तौर पर इस्तेमाल कर रहे थे कि गुलदार आए तो उसे ढेर करें। हद है, क्या यह मानवीयता है कि बच्ची की लाश को चारा बनाया जाएं?
वन विभाग के कर्मठ शिकारी और अफसरों का दिल नहीं पसीजा होगा कि एक बच्ची की लाश को इस तरह रात भर गुलदार के इंतजार में यूं ही चारे के तौर पर छोड़ दिया जाए। मेरा तो कलेजा मुंह को आ रहा है। वन विभाग मानव-वन्यजीव की घटनाओं को रोकने की अपनी नाकामी को छिपाने के लिए क्या अब एक मासूम के शव की आड़ लेगा। हद है। बता दूं कि राज्य गठन के बाद उत्तराखंड में अब तक मानव-वन्य जीव संघर्ष में 1130 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है।
हिन्दुस्तान के आरई, एनई, डीएनई क्या भूल गए कि नोज फॉर न्यूज क्या होती है? या चरणवंदना में सबकुछ भूल गए कि खबर का प्लेसमेंट कहां देना है? ठीक है चरणवंदना करनी है तो सीएम के करवा चौथ की फोटो वहां दे देते जहां गुलदार की खबर लगी है। लेकिन अखबारों को अब आम जनता से कुछ लेना-देना नहीं है। उन्हें पता है दिवाली आ रही है संपादक और पत्रकारों को मोटे गिफ्ट मिलेंगे और मालिक को सरकारी विज्ञापन, पर भूल रहे हैं ये सारा पैसा जनता का है। खैरात नहीं मिल रही।
(वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार)

 

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