- यदि पंत और तिवारी उत्तराखंड के खिलाफ थे तो हरदा कौन से पक्षधर थे?
- हरदा की पुस्तक उत्तराखंडियत का लोकार्पण आज, पुस्तक में जिक्र
हरदा की पुस्तक ‘उत्तराखंडियतः मेरा जीवन लक्ष्य‘ की आज लांचिंग है। पुस्तक में कई सियासी राज खोले गये हैं। हालांकि मैंने अभी पुस्तक पढ़ी नहीं है लेकिन जो बताया जा रहा है उसमें कहा गया है कि जीबी पंत और एनडी तिवारी उत्तराखंड के राज्य के पक्षधर नहीं थे। यह सही है। लेकिन सच यह भी है कि हरीश रावत भी अलग राज्य के समर्थक नहीं रहे।
बात 1994 के राज्य आंदोलन की है। मैं उस समय डीयू के जाकिर हुसैन कालेज छात्र संघ का अध्यक्ष था। मेरे साथ हरदा का बड़ा बेटा वीरेंद्र रावत दयाल कालेज छात्र संघ अध्यक्ष था, चौबट्टाखाल से सतपाल महाराज के खिलाफ कांग्रेस टिकट पर चुनाव लड़ने वाले राजपाल बिष्ट देशबंधु कालेज छात्र संघ अध्यक्ष था। इसके अलावा एनएसयूआई से ज्वाइंट सेकेट्र पद पर डूसू चुनाव लड़ चुके अरविंदो कालेज के रवि शर्मा और पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष अनिल बहुगुणा आदि साथी थे। आंदोलन ने हम सबको एकजुट कर दिया था।
अलग राज्य के समर्थन में जंतर-मंतर पर संयुक्त संघर्ष समिति का धरना चल रहा था। हम सभी उस धरने में शिरकत करते। दिल्ली, नोएडा, गाजियाबाद की गलियों से लेकर पार्लियामेंट स्ट्रीट तक प्रदर्शन करते। कई बार गिरफ्तार भी हुए। भूख हड़ताल पर भी बैठे। काली दिवाली भी मनाई। हम अक्सर वीरेंद्र रावत के साथ रहते थे। सेठ वही था और उसके पास ही जीप थी। बाकी हम सभी डीटीसी के साढ़े 12 रुपये के पास में चलने वाले थे। यानी फक्कड़। हालांकि अब भी मेरी स्थिति अधिक नहीं सुधरी है। खैर, नार्थ एवन्यू में हरदा ने एक सांसद के फ्लैट को कब्जाया था और उसमें वीरेंद्र और हम जैसे आवारा रहते थे। खूब धमा-चौकड़ी होती।
वीरेंद्र और आनंद दोनों ही साथ थे। जब भी हम जंतर-मंतर में धरने में जाते तो वीरेंद्र कभी धरना स्थल पर नहीं आया। वह डरता था। आनंद तो छोटा था। पिता का हुक्म था कि आंदोलन में नहीं जाना। वह हमें जंतर-मंतर के बाहर छोड़ता और चला जाता।
मनुष्य समय के साथ बदलता है। हो सकता है कि हरदा में उत्तराखंड के प्रति प्यार आ गया हो। लेकिन मैं उनके उत्तराखंडियतःशब्द को लेकर कतई भ्रमित नहीं हूं कि यह शब्द सोशल एक्टिविस्ट प्रेम बहुखंडी ने दिया है और इसे हरदा ने चुरा लिया है। चूंकि विधानसभा चुनाव के दौरान जब प्रेम बहुखंडी कांग्रेस चुनाव घोषणा पत्र तैयार कर रहे थे तो मेरी उनसे कई बार लंबी बातचीत हुई। उनका फोकस उत्तराखंडियत पर था। अब जब हरदा की किताब आ रही है तो उत्तराखंडियत शब्द की गरिमा घट सी गयी है। एक जुमला सा लग रहा है। क्योंकि यदि हरदा को उत्तराखंडियत की इतनी परवाह होती तो उनकी एक विधानसभा सीट होती। वो राजनीति में एकला चलो नहीं होते। उनका बेटा आनंद रावत राजनीति में स्थापित हो गया होता। बेटी अनुपमा विधायक बनी तो भी उसकी अपनी मेहनत है। पिता ने तो अपने सिवाए किसी की सोची ही नहीं। बाकी टिप्पणी किताब पढ़ने के बाद दूंगा। हां, ये तय है कि किताब पर 200 रुपये खर्च नहीं करूंगा। हो सकता है कि हरदा, आनंद या वीरेंद्र कोई मुझे गिफ्ट कर दें।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]