- पिछले 22 वर्षों में डीएवी या गढ़वाल विवि के प्रमुख छात्र संघ अध्यक्षों में से कितने याद हैं हम सबको?
- लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों की दून में उड़ रही धज्जियां
कल गलती से कांग्रेस मुख्यालय चला गया। वहां बैठक हो रही थी छात्र संघ के लिए शक्ति प्रदर्शन की। मुझे वहां समय गंवाना अच्छा नहीं लगा तो बाहर चला आया। लेकिन मन में विचार कौंधा, आखिर कहां गुम हो जाते हैं हर साल पैदा हो रहे छात्र संघ पदाधिकारी। अध्यक्ष से लेकर सचिव तक सब नदारद। राजनीति में भीड़ जुटाने के अलावा सामाजिक सरोकारों में कहीं भी उनकी सक्रियता नजर नहीं आती। सिवाए कालेज फक्शंन के नाम पर चंदा बटोरने के।
हाल में अंकिता भंडारी हत्याकांड के बाद उपजे विरोध में छात्र नेता शिवानी पांडे, अंकित उछोली, बाबी पंवार समेत गिने-चुने ही युवा और छात्र नेता सामने आए। छात्रों के मुद्दे छात्र संघ चुनाव खत्म होते ही गौण हो जाते हैं। वोकेशनल एजूकेशन, अच्छे नये कालेज, उच्च शिक्षा प्रणाली में सुधार, रोजगार परक शिक्षा पर जोर, खेल और सांस्कृतिक गतिविधियों को बढ़ावा, कैंपस सुरक्षा, गर्ल्स सुरक्षा, अच्छी लाइब्रेरी जैसे मुद्दे गायब हैं।
गैरसैंण, चकबंदी, रोजगार, नौकरियों में भ्रष्टाचार, विकास और अन्य जनविरोधी नीतियों पर भी छात्र या पूर्व छात्र नेता कहीं नजर नहीं आते हैं। जिनसे हमें उम्मीद थी कि वह प्रदेश की राजनीति में सेकेंड लाइन साबित होंगे। लेकिन अधिकांश छात्र नेताओं को उगाही करते या नेताओं के लिए भीड़ जुटाने का कार्य करते ही देखते हैं।
छात्र राजनीति से निकले विनोद कंडारी विधायक हैं, कैसे बने, सब जानते हैं, लेकिन विधायक होने के बावजूद उनका वजूद जीरो ही है। छात्र नेता रहे पंकज क्षेत्री और इंद्रेश मैखुरी ने ही सामाजिक और राजनीतिक सरोकारों को मजबूती से उठाया।
दून की सड़कें छात्र संघ चुनाव में उतरे प्रत्याशियों के पोस्टरों से अटी-पड़ी हैं। शहर में कई जगह बड़े-बड़े होर्डिंग्स लगे हैं। दून में एक होर्डिंग का रेंट लगभग एक लाख रुपये तक है। कियोस्क, बैनर, पोस्टर, पर्चों से सड़कों के पोल और दीवारें अटी पड़ी हैं। लिंगदोह कमेटी की सिफारिशें कहां गयी? कौन देख रहा है। किसको परवाह है? कुछ नहीं पता। प्रशासन मूक तमाशा देख रहा है। कांग्रेस और भाजपा शक्ति प्रदर्शन में पूरी ताकत झोंक रहे हैं। आखिर इतना अंधाधुंध पैसा खर्च हो रहा है तो लिंगदोह की सिफारिशों का अर्थ क्या है? यानी छात्र संघ चुनाव महज राजनीतिक दलों के लिए भीड़ जुटाने वाले छात्र नेता तैयार करना है।
देहरादून के डीएवी में 20 हजार से भी अधिक छात्र हैं। राज्य गठन के 22 साल बाद भी यह स्थिति तब और भयावह हो जाती है कि हमने इस अवधि में एक ढंग का सरकारी कालेज भी दून में नहीं खोला। वोट देते रहे, सरकारें बदलती रहीं, लेकिन देहरादून में डीएवी कालेज का जलवा बरकरार है। प्रेमनगर, रायपुर या मोथरावाला या फिर सेंटर दून में कोई कालेज नहीं खुला। अच्छा-बुरा होना अलग बात है।
किसी भी चुनाव में यह मांग नहीं जोर पकड़ती। वोकेशनल कोर्सेस भी चुनाव का मुद्दा नहीं होता। पाठ्यक्रम में बदलाव और रोजगारपरक शिक्षा प्रणाली की बात नहीं होती। डीएवी में पढ़ाई नहीं होती। डीएवी के अधिकांश शिक्षक पढ़ाने के सिवाए बाकी सभी काम करते हैं। यहां के शिक्षक कभी चुनावी मुद्दा नहीं होते।
कुल मिलाकर लिंगदोह कमेटी की सिफारिशें मजाक हैं और हम छात्र नेताओं से कहीं अधिक भ्रष्ट तंत्र की नींव मजबूत कर रहे हैं।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]