- 11 साल की उम्र में सलाउद्दीन आ गये थे दून
- चाहते हैं दून में ही मिल जाएं रॉ मटिरियल
देहरादून के बन्नू स्कूल में अखिल गढ़वाल सभा का कौथिग चल रहा है। यहां बहुत से स्टाल लगे हैं। मेले के गेट के साथ ही कालीन वालों का जमावड़ा है। इनमें से एक कालीन वाले लड़के से बरबस ही मुलाकात हो गयी। नाम इबनूर, उम्र 11 साल। मदरसे में पढ़ता है और मेलों में पिता सलाउद्दीन का हाथ बंटाता है। उसे वूलन, सिल्क, परसियन और साधारण कारपेट सबके रेट पता हैं। वाल टू वाल कारपेट भी बनाते हैं।
इबनूर से पूछा कि नाम का मतलब, वह बहुत ही मासूमियत से बोलता है रोशनी की किरण। इबनूर पहले प्ले स्कूल में पढ़ता था और अब उसे मदरसे में दाखिल करा दिया गया है। मैंने पूछा मदरसे में अंग्रेजी, साइंड पढ़ाई जाती है क्या? वह सिर हिला देता है। बचाव में पिता सलाउद्दीन कहते हैं, इसे अंग्रेजी सिखा दी है। मदरसे के बाद क्या? वह कहते हैं इसे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में भेज देंगे। क्या ये कालीन का काम नहीं करेगा। सलाउद्दीन कहता है कि कालीन का काम पुश्तैनी है। मेरी कई पीढ़ियां यही काम करती आई हैं। इबनूर भी करेगा, लेकिन पढ़ेगा भी। उसे अच्छी तालीम दिलवानी है।
सलाउद्दीन कहता है कि जब वह महज 11 साल की उम्र का था तो यूपी के भदोई से पिता के साथ दून चला आया। हुनर था और पुश्तैनी काम तो यहां सहस्रधारा क्रासिंग पर काम शुरू किया। कच्चा माल यानी पटसन, सिल्क और ऊन भदोई से लाते हैं और यहां सिलाई कर देते हैं। सलाउद्दीन ने अपनी कंपनी का नाम रखा है सम्स कारपेट। वह कहते हैं कि 12-13 औरतें काम कर रही हैं। वह चाहते हैं कि कालीन के लिए रॉ मटिरियल उत्तराखंड में ही मिल जाएं, लेकिन कोई आगे नहीं आता। किसी को परवाह भी नहीं है। हालांकि हर घर को कालीन और कारपेट चाहिए।
सच यही है कि लगभग हर घर में कालीन और कारपेट होता है। लेकिन यह कालीन आता कहां से है? इसके बारे में लोग कम ही पता करते हैं जबकि हकीकत यह है कि देहरादून में 90 प्रतिशत कालीन यूपी के भदोई से आता है।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]