- कीचड़ में आकंठ धंसे दल-बदलू नेताओं को आइना दिखा रहा
- राजनीतिक शुचिता, सिद्धांत व वैचारिकता का दूसरा नाम है इंद्रेश
उत्तराखंड में गिने-चुने कुछ नेता हैं जो मुझे बेहद पसंद हैं, उनमें से एक हैं इंद्रेश मैखुरी। मैं इंद्रेश मैखुरी को जब भी सुनता हूं तो प्रभावित होता हूं। मैं कम्युनिस्ट विचारधारा का समर्थक नहीं हूं लेकिन इंद्रेश का पहाड़ के प्रति समर्पण, उसकी स्पष्ट और गूढ़ सोच, जनपक्षधरता और सड़क पर लड़ने की असीम ताकत मुझे उससे जोड़ती है। संभवतः हर पहाड़ी को जोड़ती होगी, लेकिन चुनावी समर में तो हम धनबल, सत्ताबल और कैडर से जुड़े हुए हैं।
ऐसे में जब इंद्रेश मैखुरी कर्णप्रयाग से भाकपा माले वाम मोर्चा के उम्मीदवार के तौर पर विधानसभा चुनाव लड़ रहा है तो मैं गारंटी के साथ कह सकता हूं कि वह चुनाव हार जाएगा। संभवतः जमानत भी जब्त हो जाए। कारण, न तो कैडर है और न ही इंद्रेश के पास धनबल है। पूरा जीवन सड़क पर गुजार दिया। लोकतंत्र की यही क्रूरता मुझे सालती है कि जनता भेड़ की तरह काम करती है। सोच-समझकर वोट नहीं देती। यदि दिमाग और दिल की सुनकर वोट देती तो पहाड़ यूं बदहाल नहीं होता।
इंद्रेश के पास नेतृत्व की गजब की क्षमता है। विचार हैं, अनुभव हैं और दूरदर्शी सोच भी है। ईमानदार होना और स्वार्थी न होना उसकी सबसे बड़ी कमी है। इससे भी बड़ी कमी है कि उसका दृढ़ता के साथ चट्टान सा जमे रहना। वह दल-बदल करता तो आज सत्ता के शीर्ष पर होता, लेकिन उसने तो सड़क चुनी है। ठीक भी है जनता के खून-पसीने से सने रेड कारपेट को पैरों से रौंदने से अच्छा है कि सड़कों की उस धूल को रौंदा जाएं जो मजदूर-किसान की आवाज को बुलंद कर उन्हें न्याय दिलाती है।
इंद्रेश, न थकना, न डरना, न हारना, न झुकना। चुनाव में हार-जीत जिंदगी की सफलता का पैमाना नहीं हो सकती। वोटों से तुम भले ही हार जाओगे, लेकिन दिलों में तो हमेशा राज करोगे। जनता का दिल जीता है तुमने।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]