- सूत न कपास फिर भी जुलाहों में लठ्मलट्ठा
- इंतजार में थे, बिल्ली के भाग्य का छींका टूटेगा, वो तो नहीं टूटा, पार्टी टूट के कगार पर!
कांग्रेस के विधायक भाजपा में जाएं या आम आदमी पार्टी में। क्या उत्तराखंड की राजनीति में कोई फर्क पड़ेगा? मेरे हिसाब से रत्ती भर भी नहीं। 19 के 19 विधायक भाजपा में शामिल हो जाएं, न जनता को परवाह है और न ही नेताओं को। कोई पहाड़ नहीं टूटेगा। भाजपा हाईकमान ने 47 विधायकों को ठेंगा दिखाते हुए हारे उम्मीदवार पुष्कर सिंह धामी को सीएम बनाकर साफ संदेश दिया है कि मोदी जी जो चाहेंगे, वही होगा। जनता को मोदी पर विश्वास है और किसी पर नहीं। जनता ने मोदी के चेहरे को देखते हुए ईवीएम का बटन दबाया, न कि पार्टी उम्मीदवार का। इसलिए कोई फर्क नहीं पड़ता।
दूसरी ओर कांग्रेस से सत्ता अगले पांच साल के लिए दूर जा चुकी है। सच यही है कि प्रदेश कांग्रेस एक ऐसी बिल्ली थी, जिसके भाग्य में छींका टूटा ही नहीं। प्रदेश कांग्रेस इस भरोसे पर रही कि एंटी इनकम्बेंसी फैक्टर होगा। हर साल में सरकार बदली होगी। महंगाई और बेरोजगारी का मुद्दा अलग था। लगा कि सारे समीकरण कांग्रेस की ओर हैं और कांग्रेस में सत्ता की मलाई को लेकर युद्ध होने लगा। यानी सूत न कपास और जुलाहों में लट्ठमलट्ठा।
प्रदेश कांग्रेस की हार के लिए दो बड़े गुनाहगार हैं। हरीश रावत और प्रीतम सिंह। हरीश रावत महाड्रामेबाज और महामहत्वाकांक्षी हैं। जीवन के 75 बसंत देख चुके हरदा को लगा कि उत्तराखंडित की बात कर जनता को मोह लेंगे। कांग्रेस में हरीश रावत जैसा अनुभवी नेता अति महत्वाकांक्षा के कारण पूरी कांग्रेस को ले डूबा। हरदा को कांग्रेस को जिताने से अधिक इस बात पर जोर रहा कि उन्हें सीएम चेहरा बनाया जाएं। उनकी समस्त राजनीति और गुटबाजी इसी पर केंद्रित रही। इसके कारण लगभग कम से कम आधा दर्जन सीटें कांग्रेस हार गयी। वैसे भी हरदा को लेकर राजनीति में कहा जाता है कि उन्होंने अपनी छांव में किसी को पनपने ही नहीं दिया।
उधर, कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह 2020 तक चकराता से बाहर निकले ही नहीं। प्रदेश अध्यक्ष होने के बावजूद उनकी भूमिका बहुत ही बेकार रही। यदि प्रीतम को अल्मोड़ा बाजार या पौड़ी के पाबौ बाजार में आज भी खड़ा कर दिया जाएं तो मेरा दावा है कि 100 में 90 लोग उन्हें पहचानेंगे ही नहीं। यानी 2017 में सत्ता गंवाने के बाद कांग्रेस संभली नहीं, उस बिल्ली की तरह छींका टूटने का इंतजार करती रही कि यह टूटे तो उसे खाने को मिले। इसके बावजूद हरदा विरोधी गुट प्रीतम को भावी सीएम के रूप में प्रोजेक्ट करता रहा। इसका परिणाम यह हुआ कि दोनों आपस में लड़े और सत्ता से हाथ धो बैठे।
यदि इन दोनों नेताओं ने जनता के बीच जाकर लड़ाई लड़ी होती। कार्यकर्ताओं के बीच एका का संदेश दिया होता और भाजपा की कारगुजारियों को जनता को समझाया होता तो हार-जीत का अंतर इतना अधिक नहीं होता। राज्य में रिकार्ड तोड़ बेरोजगारी, महंगाई, कोरोना में 7500 लोगों की मौत, चार महीने में तीन सीएम बदलने और मंत्रियों के निकम्मे होने के बावजूद भाजपा न केवल सत्ता बचाने में कामयाब हो गयी बल्कि अब कांग्रेस को टूट के कगार पर ला दिया।
जनता ने किसी भी नेता के चेहरे या उसके कार्यों को देखकर वोट नहीं दिया। 100 प्रतिशत वोट मोदी के नाम से पड़े और हिन्दु-मुस्लिम को ध्यान में रखकर वोट डाले गये। भाजपा यह संदेश देने में कामयाब रही कि डेमोग्राफिक चेंज होने से हिन्दू पहाड़ों में खतरे में पड़ जाएंगे। जबकि वास्तिवकता यह है कि भाजपा भी इस चेंज के लिए उतनी ही गुनाहगार है जितनी कांग्रेस।
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस को भाजपा के राजनीतिक पैंतरों का अंदाजा नहीं था। था, यही कारण है कि हरीश रावत ने अपनी सोशल मीडिया में अपने साथ ही मुस्लिम टोपी पहने राजनाथ सिंह और अन्य भाजपाई नेताओं की फोटो शेयर की थी। लेकिन दोबारा सीएम बनने की अति महत्वाकांक्षा उनमें हिलारें ले रही थी तो वह भाजपा से टकराने की बजाए कांग्रेसियों से ही टकरा गये। नतीजन, अब कांग्रेस टूट के कगार पर है। अब प्रीतम या हरदा भाजपा में चले जाएं तो क्या फर्क पड़ेगा। नाव तो डूब गयी।
[वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]